श्रद्धांजलि स्मरण: सुदीप बनर्जी
हिंदी के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि सुदीप बनर्जी की स्मृति में हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि चंद्रकांत देवताले ने बेहद आत्मीय कविता लिखी है, जो वसुधा के अंक 82 में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है यह कविता।
अक्सर कहा करते थे तुम-
क्या दरख्त, खेत, कविता, नदी, कारखाने,
आदमी से जुदा नहीं हैं कोई भी सवाल
मैं भी महसूस कर रहा शिद्दत के साथ
इस तरह से न रहने चले जाने में तुम्हारे
शरीक हूँ मैं भी आग में धुंए की तरह
जीते जी यह कैसी सजा
दस बरस छोटे मुझसे तुम
तुम्हारे न होने को इस तरह फ्रेम में सजाना
फिर थरथराते हाथों पँखुरियाँ बिखेरना...
कहाँ तो तुम्हारे कंधों पर
अंतिम सफर करना था मुझे
और यह कैसा चीखता मनहूस वसंत
जिसमें तुम अपनी आवाज़ों सहित
मेरी याददाश्त के उजाड़ में बस गए
'आनंद' फिल्म देखने के बाद
जब-जब 'बाबू मोशाय'
पुकारता था तुम्हें
जवाकुसुम की तरह
खिल जाता था तुम्हारा चेहरा
छोटे कस्बों, अमरकंटक-बस्तर के इलाकों से लेकर
भोपाल और देश की राजधानी तक
जहाँ-जहाँ, जिन-जिन, जैसी कुर्सियों पर बैठे तुम
जमीनी रजिस्टर और बेसहारा जरूरतमंदों की
नस्तियों पर गड़ी रहीं तुम्हारी आँखें
शिक्षा-साक्षरता या दुश्चक्र में फँसे
जंगल, दरख्त, आदिवासी
सबके हकों के लिए
पगडंडी-रास्ता-बनाते-रचते संवाद
तुम कभी नहीं भूले
अपनी पुरानी खडख़डिय़ा साइकिल
और वह चप्पल जो बार-बार निपक जाती थी
तुम्हारे पाँवों से
बाहर और घर पर ही
दफ्तर में भी पूरे वक्त
तुम्हें अफसर बने रहना कभी नहीं भाया
तभी तो ड्राइवर गोविंद ने कहा था मुझसे
इस गाड़ी में साहब-अफसर तो बहुत ढोए मैंने
पर यह तो ग़ज़ब का इंसान
ऐसा एक भी नहीं...
तुम पैदाइशी कवि
पर कठघोड़ा नहीं बनाया कविता को तुमने
तुम्हें तो हर दरख्त पर कायम करनी थी राय
हर बच्चे को घर के नाम से पुकारना
और सब बुजुर्गों को करना था आदाब
साथ ही हड़पने-नफरत फैलाने वाली
कट्टर ताकतों के घमण्ड से निपटना था
फिर इतनी जल्दी क्यों की तुमने,
ज़्यादती भी...
पता नहीं किस ग़लतफ़हमी का शिकार था
फारसी का वह पुराना मशहूर शायर
जो कह गया-
'बेहद इंसाफ़ पसंद होती है मौत'
मैं तो देख रहा
मौत की आँखें नहीं होतीं
वैसे ही जैसे अंधत्व का शिकार है
खुद इंसाफ़ इन दिनों...
अपने अकेलेपन के भीतर वाले
दूसरे निचाट अकेलेपन में तुमसे
बातें करता रहता हूँ सुदीप
उकसाते रहते हो
मेरे जीवन की मिट्टी के दिए में
कँपकँपाती लौ
तुम बुझने नहीं देते
पर आँसुओं से तरबतर
घायल सपने का निचोड़ इतना
कि तुम्हारे तो काम आ गई नदियाँ
अंतिम समय में यमुना
मुझे तो सुनते रहना है नदियों का विलाप
और शोक संतप्त निरन्तर बजता तानपुरा...
एफ-2/7, शक्ति नगर,
उज्जैन-456001 (म.प्र.)
बाल-मंदिर: पानी बरसे झम -झम -झम .
8 वर्ष पहले
चन्द्रकांत देवताले जी की यह कविता उनसे सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है .. यह अच्छा लगा कि इस तरह हम लोग सुदीप जी को याद कर रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर कविता के लिये धन्यवाद सुदीप जी को शत शत नमन
जवाब देंहटाएं’ किसनलाल ’ के रचयिता की स्मृति को प्रणाम ।
जवाब देंहटाएंदादा देवताले जी ने बहुत मार्मिक कविता रची है. मुझे लगता है यही वही रच सकते थे. दुखद यह है कि जब सुदीप जी मानव संसाधन विकास मंत्रालय में आए तो हिंदी साहित्य के अच्छे-अच्छों ने चमचागिरी की इंतहा कर दी. वे लोग आज सुदीप जी का नाम तक नहीं आने देते अपनी ज़बान पर. मगर सुदीप जी सबको बड़े पद पर बिठाया. एक सज्जन की बीवी को इग्नू पहुंचाया. बहुतेरे लोग तरह-तरह की कमिटी और तरह-तरह के संस्थानों में पहुंचाए गए. पर वे चुप हैं. क्योंकि अब सुदीप जी उनका भला करने के लिए जीवित नहीं हैं. मगर दादा देवताले जी ने जिस निर्लोभ भाव से अपनी शोकांजलि उन्हें दी है, उन्हें मेरा नमन.
जवाब देंहटाएंमैं तो देख रहा
जवाब देंहटाएंमौत की आँखें नहीं होतीं
वैसे ही जैसे अंधत्व का शिकार है
खुद इंसाफ़ इन दिनों...के रचयिता की स्मृति को नमन ।