शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

श्रद्धांजलि स्मरण: विश्वंभरनाथ उपाध्याय


एक औघड़ चिंतक और रचनाकार - हेतु भारद्वाज
 
सन् 2008 में हिन्दी के जिन लेखकों का देहांत हुआ उनमें डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय एक बहुत बड़ा नाम था किन्तु हिन्दी जगत में सबसे कम नोटिस उनके जाने को लेकर लिया गया। यह एक दुखद प्रसंग है कि जयपुर में ही उनके निधन पर एक अजीब सी उपेक्षा भरी उदासी बनी रही। जबकि डॉ. उपाध्याय जीवन भर वामपंथ की अलख जगाये रहे। इतना ही नहीं आन्दोलन के स्तर पर जो लोग उनसे आंतरिक रूप से जुड़े रहे तथा समय पडऩे पर उनका उपयोग भी करते रहे, उनमें भी उनके निधन पर कोई हरकत देखने को नहीं मिली। जो लोग उल्लेखनीय का प्रसाद बांटते रहते हैं और सड़े-गले नेताओं की शान में कसीदे काढ़ते रहते हैं वे भी, जबकि वे उपाध्याय जी के बहुत निकट रहे, उनके निधन पर चुप रहे। मेरे लिए डॉ. उपाध्याय का जाना बेहद पीड़ादायक था किन्तु लोगों के व्यवहार से मुझे बहुत अधिक तकलीफ हुई। वे मेरे औपचारिक रूप से गुरु रहे तथा जितने गहरे स्नेह और अपेक्षा के सम्बन्ध मेरे उनके बीच रहे शायद ही किसी के रहे हों। उनका मेरे प्रति असीम स्नेह था और मैं उनका बहुत सम्मान करता था। हम दोनों ही इस स्थिति से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थे, किन्तु हमारे बीच एक विचित्र सा तनाव बना रहता था। इसका कारण मेरी उनसे अपेक्षाएं भी रहीं। मैं जब एम.ए. कर रहा था तो मैंने सुमित्रानंदन पंत पर उनकी पुस्तक पढ़ी थी। उस समय पंतजी पर जितनी पुस्तकें मुझे उपलब्ध हो सकीं, उनमें सबसे अच्छी पुस्तक मुझे उपाध्यायजी की लगी थी। यही मेरा उनसे प्रथम परिचय था।

जब से वह राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में आये तभी से मेरा उनका आत्मीय सम्पर्क बना रहा। निश्चय ही उपाध्यायजी परम्परागत छवि वाले गुरु नहीं थे और उन्होंने अपने व्यवहार में गुरुडम को कभी पाला भी नहीं। वे अपने विद्यार्थियों से बराबरी का संबंध रखते थे, उनसे बहस करते थे और अपने विरोध को आमंत्रित भी करते थे। जितनी शालीनता के साथ वे अपने विरोध को सहन करते थे बहुत कम लोग ऐसा कर सकते हैं। मेरा मानना रहा कि वे अद्भुत मेधा के आलोचक थे तथा जैसे नगेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी की एक त्रयी थी उसी तरह रामविलास शर्मा, नामवर सिंह की त्रयी में अगर तीसरा नाम किसी का हो सकता था तो वह उपाध्यायजी का ही था। पर ऐसा नहीं हो पाया। इसका एक कारण उनका अपना औघड़पन था-वे सबसे बराबरी के स्तर पर मिलते थे। अपने विरोध को सहर्ष स्वीकार करते थे। उनके 'यों बोला नाथ विश्वम्भर' शीर्षक कविता संग्रह पर गोष्ठी थी। स्व. प्रकाश श्रीवास्तव ने इस संग्रह की कविताओं में सार्त्र का सारा दर्शन खोज निकाला तो डॉ. वीरेन्द्र सिंह ने दिक्-काल और विज्ञान विषय अवधारणाओं के आलोक में संग्रह की कविताओं की आलोचना की। डॉ. राघव प्रकाश ने उनकी कविता को मुक्तिबोध से आगे की कविता बताया। गोष्ठी में मुझसे बोलने का आग्रह किया गया। बहुत संकोच के साथ मैंने कहा कि जब उपाध्याय जी की कविता में इतना सब कुछ है तो मेरे लिए खोजने को उसमें क्या बचता है। किन्तु हमें यह तो देखना ही चाहिए कि संग्रह की कविताओं में कविता कितनी है? यह सवाल मैंने उनकी उपस्थिति में रखा था। यह सवाल उनके विद्यार्थी ने गोष्ठी में रखा था। किन्तु उपाध्यायजी ने खड़े होकर कहा कि हमारे विद्यार्थी कितने मेधावी हैं और हमारी कविता के प्रति उनके मन में कितना सम्मान है, यह आपने भारद्वाजजी से सुन लिया। पर मुझे अपनी कविताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। मैं हेतु की टिप्पणी को खारिज नहीं कर सकता। अगर उन्हें लगता है कि मेरी कविताओं में शब्दों की बहुलता है तो मुझे अपनी कविता को बार-बार पढऩा चाहिए। जाहिर है इतनी गम्भीर बात कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कह सकता। हिन्दी में तो लोगों को जरा-सा विरोध बर्दाश्त नहीं है। अजीब स्थिति तब बनी जब गोष्ठी के बाद अधिकांश लोगों ने मुझसे कहा कि तुमने बहुत सटीक बात कही। मैंने यही कहा कि तभी उपाध्यायजी ने मेरी बात पर ही टिप्पणी की। लेकिन उनके इस औघड़पन का न उनके विद्यार्थियों ने सम्मान किया न हिन्दी जगत ने। उनके चिंतन और लेखन की रेंज बहुत व्यापक की-नाथ सम्प्रदाय पर शोध कार्य, समकालीन माक्र्सवाद पर गहन चिंतन, भारतीय काव्य शास्त्र का मार्क्‍सवादी दृष्टि से मौलिक अध्ययन, आधुनिक कविता, कहानी, उपन्यास आदि विधाओं पर गहन अध्ययन, गोरखनाथ के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास, प्रगतिशील आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी जैसे अनेक विपरीत प्रत्यय उनसे जुड़े हुए थे जिनसे उनकी क्षमता और ऊर्जा का पता चलता था। वे अद्भुत वक्ता थे- इस सीमा तक कि श्रोता उनके वक्तत्व से घबरा उठें। पर अपनी बात को सहजता और निर्भीकता के साथ कहने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। मैं जिस कॉलेज में रहा मैंने उन्हें भाषण के लिए जरूर बुलवाया और वे अपने भाषण से मेरे लिए मुसीबत ही खड़ी करके गये जिसे वे स्वीकार भी करते थे। उन्होंने डॉ. रामविलास शर्मा के साथ 'समालोचना' के सम्पादन में सहयोग दिया था किन्तु उपाध्यायजी ने रामविलासजी की तरह योजनाबद्ध तरीके से लेखन नहीं किया तथापि डॉ. उपाध्याय का रचना संसार बहुत बड़ा है। कविता, उपन्यास, नाटक, गज़ल, आलोचना आदि अनेक विधाओं में उन्होंने पर्याप्त मात्रा में सृजन किया किन्तु मूलत: वे एक आलोचक थे और अगर उन्होंने इधर-उधर की विधाओं में न भटककर आलोचना में ही काम किया होता तो वे निश्चित रूप से रामविलास शर्मा, नामवरसिंह की त्रयी में आते।

मेरी उनसे अक्सर झड़प हो जाती थी और कई बार हम दोनों ही परस्पर रूठ जाते थे। एक दिन उन्होंने कह दिया, तुम काम-वाम तो करते नहीं बस हमें हड़काते रहते हो। मुझे लगता है तुम शोध कार्य नहीं कर सकते। मैंने कहा कि ठीक है आप चाहें तो विश्वविद्यालय को मेरा रजिस्ट्रेशन निरस्त करने के लिए लिख दें। काफी दिन हो गये। हम दोनों का मिलना नहीं हुआ। मेरे एक सहयोगी डॉ. रामगोपाल गोयल उन्हें कॉलेज में भाषण के लिए बुलाना चाहते थे। मैंने कहा कि इन्वाइट कर आओ। जब डॉ. गोयल उन्हें आमंत्रित करने गये तो उन्होंने पूछा कि क्या हेतु भी हमें बुलना चाह रहा है। वे भाषण देने नीमा का थाना आये तो पहले मेरे आवास पर आये और दरवाजे पर खड़े होकर बोले,-अगर तुम वादा करो कि अपना शोध कार्य जल्दी पूरा कर दोगे तो ही मैं घर में घुसूंगा वर्ना बिना भाषण दिये वापस चला जाऊँगा। मैंने हामी भरी तभी वे घर में घुसे और पत्नी से बड़े आत्मीय लहजे में बोले,-बहू, ये भारद्वाज हमारे साथ बहुत खुरपेंची करता है। इसे समझाया करो। और इसके बाद जैसे कुछ हुआ ही नहीं। शोध-प्रबंध टाइप हो रहा था, उसे सबमिट करने की तिथि नजदीक थी और उन्हें कई रोज के लिए बाहर जाना था। उन्होंने कार्यालय अधीक्षक दामोदर पारीक (वे ही थीसिस टाइप कर रहे थे) को बुलाकर कहा कि हमारे हर जरूरी कागज पर दस्तखत करा लो, थीसिस तिथि से पूर्व सबमिट हो जानी चाहिए। मैंने उनसे कहा कि आप कम से कम भूमिका तो पढ़ लें, तो हंसकर कहने लगे कि तुम क्या लिखना सीख रहे हो। मैंने भूमिका में उनके लिए जितना लिखा था उसे काटकर केवल एक दो वाक्य रहने दिये,- मेरे तुम्हारे संबंध इन प्रशंसाओं से कहीं ऊपर हैं। तुमने काम पूरा कर दिया मेरे लिए यह प्रसन्नता की बात है। यह थी उनकी औघड़ आत्मीयता। शायद यही उनके स्वभाव का स्थायी तत्व था।

राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी पाठ्यक्रम समिति के चुनाव होने को थे। उपाध्यायजी उसमें खड़े होना चाहते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम इस बार खड़े मत हो। मैंने कहा कि एक पद के लिए तो चुनाव है नहीं। पांच लोग चुने जाने हैं। यह भी तो सम्भव है कि हम दोनों चुनाव जीत जाएं। पर वे अपनी बात पर अड़े रहे। सभी मित्रों की राय थी कि मेरा चुनाव न लडऩा गलत रहेगा। संयोग से उपाध्यायजी चुनाव नहीं जीत सके और मैं चुनाव जीत गया। उन्होंने अपनी हार का कारण मुझे ही माना। हम लोग उनके घर बैठे थे-डॉ. जयसिंह नीरज भी साथ थे। वे भी चुनाव हार गये थे। पर उपाध्यायजी मेरे ऊपर बरस रहे थे कि तुमने मुझे हरवाया। नीरज ने भी उन्हें समझाया कि आप गलत सोचते हैं। अगर हेतु नहीं खड़े होते तो कहां जरूरी था कि आप जीत जाते। पर उपाध्यायजी मानने को तैयार नहीं हुए और क्रोध की वर्षा से मुझे आप्लावित करते रहे। मैंने कहा, ठीक है अब मैं आपके घर नहीं आऊँगा। वे तैश में बोले,-मत आना। हमारे पास कौन आने वालों की कमी है। हम किसी की परवा नहीं करते। मैं उठकर चल दिया और जब जीने से उतरने लगा तो अम्मा ने मेरे पास आकर कहा-लल्ला जे तो यों ई बकत रहत हैं, तुम आबी-जाबी बंद मत करियो। मैं चुपचाप चला आया था। लम्बे अरसे तक उनके आवास पर नहीं गया। मिलना तो अक्सर होता रहता था। उन्होंने कभी गुस्सा प्रकट नहीं किया। एक रोज मुझे वे नीरजजी के आवास पन पर मिल गये। बातें होती रहीं। चाय-वाय पीकर हम दोनों बाहर निकल आये। उपाध्यायजी का आवास पास ही था। उनके आवास के सामने हम लोग खड़े-खड़े बातें करते रहे। फिर नाले की पुलिया पर बैठ गये तो वे बोले,-ऊपर तो तुम चलोगे नहीं? -आपने कभी कहा है क्या?-तो चलो, उन्होंने उठकर मेरा हाथ पकड़ लिया और हम ऊपर चले गये। उन्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं रह गयी थी। फिर वही लिखने-पढऩे और आन्दोलन की बातें।

वे सब के साथ खुला व्यवहार रखते थे, पत्र लिखने में कभी कोताही वे नहीं बरतते थे। कोई भी पत्रिका उनके पास आती, वे अविलम्ब अपनी प्रतिक्रिया भेजते। वे निरंतर संवाद बनाये रखना चाहते थे। 1974-75 में जब उपाध्यायजी राजस्थान विवि, जयपुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे तो उनके संयोजन में एक दस दिवसीय सेमीनार हिन्दी आलोचना को केन्द्र में रखकर हुआ था। सेमीनार के लिए यूजीसी से पैसा मिला था। इस आयोजन की विशेषता यह थी कि इसमें देश भर के विद्वानों ने भागीदारी की थी। जैसे हिन्दी साहित्य का पूरा संसार इस कुम्भ में एकत्र हो गया था। खुलकर बहसें हुई थीं। एक रोज किसी मित्र ने शगूफा छोड़ दिया कि रोजाना खुफिया विभाग का आदमी गोष्ठी में आता है और किसने क्या कहा इसकी रिपोर्ट राज्य सरकार को देता है। तब आपातकाल था। मैंने देखा कि मंच से दहाडऩे वाले अच्छे-अच्छे वीरों की पोल खुल गयी थी। कई तो बीच में ही जाने को उद्यत हो गये थे, पर उपाध्यायजी ने निर्भीक होकर संवाद करने की मांग व्यक्त की थी और यह भी कहा था कि वे सरकार से लड़ सकते हैं। मुझे याद है कि उस गोष्ठी में अकेले विष्णुकांत शास्त्री थे जिन्होंने मंच से एक गोष्ठी में कहा था कि मैं आपातकाल का खुलकर विरोध करता हूँ यदि कोई इंटेलीजेंस का व्यक्ति हो तो मेरी भावना सरकार तक पहुंचा दे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस आयोजन ने उपाध्यायजी की क्षमताओं और परिस्थितियों को तो उजागर किया ही, उनके अकादमिक सरोकारों को भी रेखांकित किया। इतना बड़ा आयोजन जयपुर में न इससे पूर्व हुआ था न इसके बाद कभी हुआ।

उपाध्यायजी के व्यक्तित्व में विचित्र किस्म की विपरीतताओं का संघात था-उनमें वैदुष्य और व्यापक अध्ययन का आक्रांत करने वाला घटाटोप था तो बालसुलभ निश्छलता भी थी। ज्ञान के प्रति गहरी जिज्ञासा थी तो छोटी सी बात पर तुनक जाने की आदत भी थी। व्यवहार में एक असीम औदार्य था तो संकीर्ण व्यक्तिवाद भी था। कई बार लगता था कि वे सामंतवाद के पक्षधर हैं किन्तु मूलत: उनकी चेतना पर जनपक्षधरता का ही अधिकार था। वे अपनी धारणाओं के प्रति आग्रहशील तो थे पर इतने नहीं कि दूसरे की बात न मानें। वे विरोधी विचार वालों से भी संवाद करने में गुरेज नहीं करते थे। मेरी थीसिस सबमिट हो गयी। न मैंने पूछा न उन्होंने बताया कि परीक्षक-पैनल में कौन-कौन लोग हैं। लगभग तीन माह बाद उन्होंने मुझे डॉ. रघुवंश और डॉ. सी.एल. प्रभात की रिपोर्ट दीं। दोनों ही बहुत प्रशंसात्मक थीं। उपाध्यायजी बोले,-अब तुम्हें एक काम करना है। किसी तरह वाइवा में सी.एल. प्रभात को आमंत्रित कराओ। विवि की परम्परानुसार तो कम दूरी पर होने के कारण डॉ. रघुवंश को ही आमंत्रित किया जाएगा। पर मैं चाहता हूँ कि किसी तरह प्रभातजी को बुलवाओ। वे हमारे मित्र हैं आगरे के। हमें बराबर बम्बई बुलाते रहते हैं। हम कभी नहीं बुला पाते। यह काम तुम कर सकते हो। मैंने उनसे कहा कि मेरा ख्याल है आपका कहना ही काफी रहेगा। आप तो वीसी से भी कह सकते हैं। -नहीं मैं नहीं कहना चाहता। पर तुम जैसे भी हो प्रभातजी को बुलवाओ। डॉ. जनक शर्मा, जिन्होंने मुक्तिबोध पर शोध कार्य किया था, विवि में शोध विभाग में प्रभारी थीं। उनका शोधार्थियों को पूरा सहयोग मिलता था। मैंने उनसे जब यह बात बतायी तो उन्होंने ही कहा कि डॉक्ट साब वीसी से कहकर करवा सकते हैं। मैंने बताया कि वे नहीं कहना चाहते। मैंने डॉ. जनक शर्मा को सुझाया कि आप फाइल पर टिप्पणी बनायें कि डॉ. रघुवंश, कम दूरी पर होने के कारण, अनेक बार मौखिकी के लिए आ चुके हैं। इस बार डॉ. प्रभात, बम्बई को आमंत्रित कर लिया जाए। यह तरकीब काम कर गयी और डॉ. प्रभात का नाम टिक हो गया। इससे उपाध्यायजी को बहुत प्रसन्नता हुई। डॉ. प्रभात बहुत ही शालीन और मृदुल व्यक्ति थे। उपाध्यायजी ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया। विभाग में उनका भाषण भी कराया। डॉ. प्रभात भी जयपुर से बहुत प्रसन्न भाव से वापस गये। जब हमने प्रभात जी को विदा कर दिया तो उपाध्यायजी मुझसे बोले,-अच्छा हेतु, तुम्हारा काफी पैसा खर्च हो गया। लो हमारी तरफ से यह रख लो और उन्होंने कुछ नोट मेरी तरफ बढ़ाये। मुझे नहीं पता कि वे कितने थे पर मैंने कहा आप क्या मुझे इतना छोटा समझते हैं? -नहीं यार, ऐसा है कि प्रभातजी के आने से हमें बहुत अच्छा लगा है तुम व्यवस्था न करते तो शायद वे आ ही नहीं पाते। लो रख लो हमारे ही काम आ जाएंगे।-तो आप ही रखें इन्हें। प्रसंग वहीं समाप्त हो गया।

डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय का जाना हिन्दी समीक्षा के लिए बहुत भारी क्षति है। उनका सारा लेखन बिखरा हुआ है। उनकी ग्रंथावली छपे तो उनके कार्य का मूल्यांकन हो। और नहीं तो उनके समीक्षा ग्रंथों का संकलन तो निकले ही ताकि उनके समीक्षा-चिंतन की रेंज का पता चले। हिन्दी में अब किसी लेखक का महत्व उसके लेखन के कारण नहीं होता, यह जिम्मेदारी अब लेखक के परिवार पर आती जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। मुझे याद है कि 'वर्तमान साहित्य' के आलोचना पर तीन अंक प्रकाशित हुए थे। उनमें भी उपाध्यायजी को यथोचित स्थान नहीं मिला था। उनमें तो मुक्तिबोध तक की पूर्ण उपेक्षा की गयी थी।

ऐसे विकट समय में हम अपने पुरोधाओं की स्मृति को कैसे अक्षुण्ण बनाये रख सकते हैं, यह बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने है। लगता है कि हिन्दी में ऐसी संस्कृति का अभी तक विकास नहीं हो पाया है कि पुरोधाओं को उनकी जगह स्थापित किया जा सके। खारिज करने को तो हम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तक को एक पंक्ति में खारिज कर सकते हैं किन्तु किसी के महत्व को स्वीकार कर उसका तटस्थ मूल्यांकन करना श्रमसाध्य कार्य तो है ही, उसके लिए बड़े मन की भी जरूरत है। हिन्दी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने तात्कालिकता को सर्वोपरि माना है। या तो हमने भक्त तैयार किये हैं या निंदक। किसी भी लेखक के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए दोनों ही घातक हैं। इसी क्रम में हमें डॉ. विश्वम्भरनाथ के समीक्षा कर्म का मूल्यांकन करना चाहिए।

-ए-243, त्रिवेणी नगर,

गोपालपुरा बाइपास, जयपुर

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

सुदीप के न रहने पर


श्रद्धांजलि स्मरण: सुदीप बनर्जी


हिंदी के अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण कवि सुदीप बनर्जी की स्‍मृति में हमारे समय के अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण कवि चंद्रकांत देवताले ने बेहद आत्‍मीय कविता लिखी है, जो वसुधा के अंक 82 में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्‍तुत है यह कविता।


अक्सर कहा करते थे तुम-
क्या दरख्त, खेत, कविता, नदी, कारखाने,
आदमी से जुदा नहीं हैं कोई भी सवाल

मैं भी महसूस कर रहा शिद्दत के साथ
इस तरह से न रहने चले जाने में तुम्हारे
शरीक हूँ मैं भी आग में धुंए की तरह

जीते जी यह कैसी सजा
दस बरस छोटे मुझसे तुम
तुम्हारे न होने को इस तरह फ्रेम में सजाना
फिर थरथराते हाथों पँखुरियाँ बिखेरना...

कहाँ तो तुम्हारे कंधों पर
अंतिम सफर करना था मुझे
और यह कैसा चीखता मनहूस वसंत
जिसमें तुम अपनी आवाज़ों सहित
मेरी याददाश्त के उजाड़ में बस गए

'आनंद' फिल्म देखने के बाद
जब-जब 'बाबू मोशाय'
पुकारता था तुम्हें
जवाकुसुम की तरह
खिल जाता था तुम्हारा चेहरा

छोटे कस्बों, अमरकंटक-बस्तर के इलाकों से लेकर
भोपाल और देश की राजधानी तक
जहाँ-जहाँ, जिन-जिन, जैसी कुर्सियों पर बैठे तुम
जमीनी रजिस्टर और बेसहारा जरूरतमंदों की
नस्तियों पर गड़ी रहीं तुम्हारी आँखें
शिक्षा-साक्षरता या दुश्चक्र में फँसे
जंगल, दरख्त, आदिवासी
सबके हकों के लिए
पगडंडी-रास्ता-बनाते-रचते संवाद
तुम कभी नहीं भूले
अपनी पुरानी खडख़डिय़ा साइकिल
और वह चप्पल जो बार-बार निपक जाती थी
तुम्हारे पाँवों से

बाहर और घर पर ही
दफ्तर में भी पूरे वक्त
तुम्हें अफसर बने रहना कभी नहीं भाया
तभी तो ड्राइवर गोविंद ने कहा था मुझसे
इस गाड़ी में साहब-अफसर तो बहुत ढोए मैंने
पर यह तो ग़ज़ब का इंसान
ऐसा एक भी नहीं...

तुम पैदाइशी कवि
पर कठघोड़ा नहीं बनाया कविता को तुमने
तुम्हें तो हर दरख्त पर कायम करनी थी राय
हर बच्चे को घर के नाम से पुकारना
और सब बुजुर्गों को करना था आदाब
साथ ही हड़पने-नफरत फैलाने वाली
कट्टर ताकतों के घमण्ड से निपटना था
फिर इतनी जल्दी क्यों की तुमने,
ज़्यादती भी...

पता नहीं किस ग़लतफ़हमी का शिकार था
फारसी का वह पुराना मशहूर शायर
जो कह गया-
'बेहद इंसाफ़ पसंद होती है मौत'

मैं तो देख रहा
मौत की आँखें नहीं होतीं
वैसे ही जैसे अंधत्व का शिकार है
खुद इंसाफ़ इन दिनों...

अपने अकेलेपन के भीतर वाले
दूसरे निचाट अकेलेपन में तुमसे
बातें करता रहता हूँ सुदीप
उकसाते रहते हो
मेरे जीवन की मिट्टी के दिए में
कँपकँपाती लौ
तुम बुझने नहीं देते

पर आँसुओं से तरबतर
घायल सपने का निचोड़ इतना
कि तुम्हारे तो काम आ गई नदियाँ
अंतिम समय में यमुना
मुझे तो सुनते रहना है नदियों का विलाप
और शोक संतप्त निरन्तर बजता तानपुरा...
















एफ-2/7, शक्ति नगर,
उज्जैन-456001 (म.प्र.)

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

संपादकीय - और भी ग़म हैं ज़माने में....



इधर काफी समय से लेखक संगठनों को लेकर हर तरफ कई किस्म की बहस और चर्चा चल रही है। एक ओर जहां लेखक संगठनों को गलियाने वालों की कमी नहीं है, वहीं स्वार्थसिद्धि के चलते वैयक्तिक प्रतिबद्धता को सामूहिक-सामाजिक प्रतिबद्धता के परिपार्श्व में खड़ा कर सवाल किए जा रहे हैं। नए लेखकों में इससे एक भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। ऐसे समय में वसुधा के अंक 82 में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और वसुधा के प्रधान संपादक प्रो. कमला प्रसाद का यह संपादकीय बहुत विचारोत्ते्जक है। लेखक संगठनों को लेकर बहुत से सवालों के जवाब भी इसमें मौजूद हैं तो अनेक ऐसे सवाल भी हैं जो जवाब मांगते हैं, कम से कम उन लोगों से तो जरूर जो लेखक संगठनों के अस्तित्व को लेकर ही प्रश्न उठाते फिरते हैं। इसे समकालीन साहित्य की बहस के तौर पर भी लिया जा सकता है। आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। - प्रेमचंद गांधी


आज लेखकों के हजारों संगठन हैं। गली-गली चौराहे-चौराहे में। राजनीतिक दलों की छाया में और उनसे बाहर भी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा संचालित भी। अलग-अलग भाषाओं में सत्ता पोषित और अपोषित। उत्सवधर्मी। अपने-अपने नायकों को याद करने के लिए। गहोई समाज याद करेगा-मैथिलीशरण गुप्त को। कान्यकुब्जों के लिए नायक होंगे-निराला। कबीर जयन्ती या वाल्मीकि जयन्ती के अपने-अपने समाज हैं। समाज को विखण्डित करने के लिए इनका इस्तेमाल होता है। मनुष्य के दुख-दर्द की गाथा कहने वाले रचनाकारों को आध्यात्मिक रंग में रंगने की कोशिशें होती हैं। कवियों-रचनाकारों का पूजा के लिए इस्तेमाल होने लगता है। पूजावादियों ने तुलसीदास की कृति रामचरित मानस को लाल कपड़े में बांधकर पूजा घर में रख दिया है। रोज पाँच दोहे का पाठ करके पूजा करते हैं। लेखकों के संगठनों की शायद आज तक किसी ने सूची नहीं बनायी होगी। ये क्या काम करते हैं कैसे व्यवस्था का पोषण करते हैं, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। चिन्ता है तो प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की। इनका होना उन्हें अखरता है। इनको तोडऩे के लिए चारों ओर से कोशिशें होती हैं। सत्ताएं इन्हें या इनसे जुड़े लेखकों को दंडित करती हैं। फूटी आँख नहीं देखतीं।

आज के सात दशक पहले दुनिया के लेखकों-बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों एवं समाज वैज्ञानिकों ने मिलकर तय किया कि उन्हें केवल मनुष्य कल्याण की सदेच्छाएं पालने और लिखने के बजाय सामाजिक परिवर्तन में हिस्सेदारी निभानी चाहिए। बोलना और लिखना काफी नहीं है। द्वितीय विश्वयुद्ध ने जिस तरह जनप्रतिरोध की हत्या की, नस्लवाद को थोपने की कोशिश की, लेखकों, कलाकारों को जेलों में ठूंसा, पता नहीं क्यों लोगों को लेखक संगठनों पर हमला करते हुए इतिहास के इन क्रूर दिनों की याद नहीं आती। लेखकों ने संस्कृति की रक्षा के लिए संगठित होने का जो संकल्प लिया था-उसे भूल जाते हैं। उपभोक्तावादी समय में चैन की वंशी इतनी मधुर हो गई है कि दूरगामी अवचेतन की गांठें नहीं खुलतीं। लगता है कि सब जगह खुशहाली है। अमन चैन है। मजदूरों-किसानों के संगठनों-कर्मचारी संगठनों को तोडऩे की कोशिशें तो होती ही हैं।’ अब लेखकों को तोडऩे का काम हो रहा है। स्वयं लेखक इसमें सक्रिय हैं। प्राय: प्रेमचन्द को उद्धृत कर कहा जाता है कि लेखक स्वयं प्रगतिशील होता है, इसलिए उसके लिए संगठनों की ज़रूरत नहीं है। मौज़ूदा तीनों संगठनों को पार्टीबद्ध घोषित कर दिया जाता है। सामान्य मान्यता है कि प्रलेस-भाकपा, जलेस-माकपा और जसम-माकपा (माले) से सम्बद्ध हैं। चलिए थोड़ी देर के लिए पार्टी सम्बद्धता के प्रश्न को अभी स्थगित कर लेखक संगठनों की वर्तमान स्थिति और ज़रूरतों के बारे में बातें करें।

हिन्दुस्तान में आज़ादी की लड़ाई दुनिया के मुक्ति संग्राम का हिस्सा थी। पूरी बीसवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण पहलू यही है कि धीरे-धीरे उपनिवेशवाद से जनता को मुक्ति मिली। राष्ट्रीयताएं जन्मीं-पुष्ट हुईं और भौतिक रूप से जनता के बीच वैश्विक दृष्टि का विकास हुआ। बीसवीं शताब्दी जैसे महान विचारक, रचनाकार और बुद्धिजीवी पहले नहीं थे। सामाजिक संघर्ष में भागीदारी, विश्व दृष्टि और यथार्थ की कोख से जन्मे स्वप्नों के कारण ही महान रचनाकारों का उदय हुआ। भारतीय भाषाओं के अलावा हिन्दी भाषा और साहित्य में इसके प्रमाण कम नहीं हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे रचनाकार ने अपनी निजी दुनिया से बाहर आने की घोषणा की। प्रगतिशील लेखक संघ के साथ जुडऩे की अनिवार्यता अनुभव की। ठीक है, प्रेमचन्द जैसे लेखकों को प्रगतिशील लेखक संघ ने नहीं बनाया। सामाजिक प्रतिबद्धता के चलते उन्हें ही संगठन की ज़रूरत अनुभव हुई। इसी प्रतिबद्धता से वे महान लेखक बने। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के पूर्व वे लेखकों के संगठन के लिए बेचैन थे। सज़्ज़ाद ज़हीर ने लंदन से प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के लिए घोषणा-पत्र भेजा तो प्रेमचन्द उछल पड़े- 'हाँ, मुझे इसी तरह के लेखक संगठन का इंतजार था।‘ वे संगठन में न केवल शामिल हुए, वरन् उसकी नींव रखी तथा घूम-घूमकर इकाइयां गठित करने लगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कलकत्ता में होने वाले प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन के उद्घाटन भाषण के रूप में जो शब्द कहे-उसकी कुछ पंक्तियाँ यों हैं- 'मेरी तरह गोशानशीनी से काम नहीं चल सकता। एक लम्बे समय तक समाज से अलग रहकर मैंने जो बहुत बड़ी गलती की है, अब मैं उसे समझ गया हूँ, और यही वजह है कि अब मैं नसीहत कर रहा हूँ।‘

मित्रों, लेखक संगठनों के पीछे छिपा मंत्र सामाजिक प्रतिबद्धता का है। सामाजिक प्रतिबद्धता समाज में मात्र रहने से नहीं आती। घर, परिवार, नौकरी मैं कैद रहकर दिनचर्या निभाना सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए काफी नहीं है। सामूहिकता का भाव-बोध एक अलग प्रयत्न है। मध्ययुगीन संत कवि सामाजिकता के लिए गृहत्यागी तक हो गए। प्रेमचन्द या रवीन्द्रनाथ टैगोर केवल लेखन के ज़रिए नहीं अपनी सामाजिकता के ज़रिए व्यवस्था परिवर्तन में हिस्सेदार बनना चाहते थे। इसी उद्देश्य से अनुप्राणित होकर हिन्दुस्तान की सभी भारतीय भाषाओं के बड़े-बड़े लेखकों ने इस मंत्र की सार्थकता समझी और संगठन में शामिल हुए।

सात दशकों बाद इक्कीसवीं शताब्दी की दुनिया बदल चुकी है। माना कि पहले से जैसा ज़ज़्बा नहीं बचा। सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी संरचना का जो रास्ता खुला था, वह बिखर गया। सामन्तवाद-पूंजीवाद समाप्त नहीं हुआ था तो उन्हीं के कलुषित जोड़ से समाजवाद की दिशा में बढ़ते कदमों से दुनिया में बन रही वैश्विक मानवीय एकता को खण्डित किया जाने लगा। एशिया के देशों में आपसी युद्ध के बीज बोये जाने लगे। तीसरी दुनिया की एकता टूट गई। लेखकों-कलाकारों का समाज सस्ती लोकप्रियता और निजी महत्वाकांक्षाओं का शिकार होने लगा। लोकतंत्र के लिए समरसता मूलक सपने देखे जा रहे थे। वह दूर की कौड़ी लगने लगा। खोज-खोजकर वामपंथी राजनीतिक दलों-बुद्धिजीवियों-लेखकों के साथ दबाब बनाकर प्रलोभन और महत्वाकांक्षाओं को जगाते हुए संगठनों तथा इससे जुड़े लेखकों की सामाजिक प्रतिबद्धता को खंडित किया जाने लगा। यह काम अचानक चन्द दिनों में नहीं हुआ। स्वतंत्र भारत में स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ के संगठनकर्ता सज़्ज़ाद ज़हीर ने अपने जीवित रहते-रहते ही देख लिया था और कहा था- 'अवाम की इच्छाशक्ति, विवेक और समझदारी को काम में लाए बिना वह सामूहिक क्रिया असंभव है जिसे 'इंकिलाब’ कहते हैं। कभी धर्म, मज़हब और परम्परा के नाम पर लोक में जात-पात और नस्ल के नाम पर कभी उग्र राष्ट्रवाद के ज़ज़्बे को उभारकर, कभी भाषा और संस्कृति के सवाल में तंग नज़रिए, संकुचित विचारधारा फैलाकर और ज़हालत फैलाने का ज़रिया बनाकर इंसानों और इंसानों में फूट डाली जाती है। अवाम की ताकतों को तोड़ा और प्रदूषित किया जाता है कभी ऐसे दार्शनिक ख्यालात और विचारों को फैलाकर जिनसे इंसानियत और उसके उज्जवल भविष्य, इंसान और विकासशीलता की ओर से दिलों में मायूसी और घुटन पैदा हो जाती है। और हम बेहिसी और निष्क्रियता का शिकार हो जाते हैं।‘ बन्ने भाई की ये पंक्तियाँ कितने दिनों बाद आज की लग रही हैं। अवाम की शक्ति और लेखकों की सामाजिकता को तोडऩे के लिए ये सारे प्रयत्न अब चरम पर हैं। इतिहास का अन्त कहा जा चुका है। कभी आधुनिकता के आने से हमारे देश में नवजागरण की लहर उठी थी। पुनरुत्थानवादी शक्तियाँ कमजोर-शिथिल हो चली थीं। आज़ादी के बाद अपने-अपने सियासी हित में वे फिर मजबूत की गईं। समाजवादी संरचना सबके लिए शत्रु बन गई। साम्राज्यवाद, समाजवादी व्यवस्था को मनुष्य के स्वप्नों से भी निकालने के लिए कटिबद्ध है। अमरीका कितने ऐसे लोगों को फेलोशिप देकर कहता है कि समाजवाद को जड़ों से उखाडऩे के उपाय खोजो। ऐसे में तमाम देशी-विदेशी विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए लेखकों के प्रगतिशील संगठन हैं। जिन्दा हैं। माना कि उनमें पूरी जिम्मेदारी के निर्वाह की क्षमता नहीं है। हो भी नहीं सकती। निश्चय ही जटिल स्थितियों को सुलझाने की बौद्धिक क्षमता का ह्वास हुआ है। मध्यवर्गीय निजबद्धताओं की घेराबन्दी है। शहरों में रहने वाले व्यवसायजीवी लेखकों ने मीडिया का सहयोग लेकर परस्पर शत्रुता को हवा दी है। सांगठनिक वैरभाव, आपसी दलबन्दी और वैचारिक संघर्ष के व्यापक क्षेत्रों के प्रति उदासीनता-निरन्तर इन्हें कमजोर करती है। युवा लेखक साथ आते हैं। कूटनीतिक व्यवहार के चलते वापस लौट जाते हैं। रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें कैरियर की चिन्ता रात-दिन सताती है। बड़ी-बड़ी नौकरियाँ निश्चिन्त नहीं करतीं। असुरक्षा की मनोग्रंथियाँ हैं। ऐसे में सामाजिकता का भाव और लेखकीय प्रतिबद्धता गौण हो जाती है। गरीब-वंचित अवाम से तो कोई नाता नहीं रह जाता। मज़हबी कर्मकाण्ड ने तमाम दृश्य संचार को जकड़ लिया है। विश्वविद्यालयों के परिसर से ज्ञान की आवाज नहीं आती। गोष्ठियाँ-संगोष्ठियाँ कर्मकाण्ड में बदल गई हैं। हमारे लेखक संघों में जो लोग शामिल हैं वे आसमान से नहीं आते। ज्यादातर सरकारी-गैर सरकारी नौकरी में ही तो हैं। अपने-अपने धंधे हैं। मंच की कविता का स्वभाव अलग है। वहाँ मुकुट बिहारी सरोज, वीरेन्द्र मिश्र, रमेश रंजक नहीं हैं। आशु कवि हैं पर उन तक पहुंच नहीं। गाँव-देहात में लिखी जाती लोक-कविता से रिश्ता नहीं। समूची लोक कविता अछूत हो गई है। तथाकथित लेखन आकस्मिक और सांगठनिक चिन्ता तो और भी आकस्मिक। इसी को आप मुख्यधारा कहते हैं। आप लेखन के क्षेत्र में थोड़ा प्रतिष्ठित हुए तो संगठनों की सदस्यता के बावजूद सामाजिक जि़म्मेदारियों से उदासीन। ऐसे माहौल में वे तथाकथित वामपंथी मुखर दिखते हैं जो कहते हैं कि लिखने के लिए या वैचारिकता के लिए संगठन ज़रूरी नहीं हैं। संगठनों की गतिविधियाँ भी यह प्रमाणित नहीं कर पातीं- कि नहीं, अच्छा-बेहतर लिखने के लिए भी सामाजिक हिस्सेदारी और संगठन ज़रूरी हैं। संगठन मशीन नहीं- परिवर्तनकारी सपनों को पालने निराशा-हताशा से लडऩे के केन्द्र होते हैं। संगठनों में निष्ठापूर्वक रहकर लेखकों को पता नहीं चलता कैसे वे बेहतर से बेहतर हो रहे हैं: पर संगठन यदि अपनी व्यापक भूमिका को पहचानें तब तो। उनके उपकरणों में ताज़गी हो तब तो। जनता के लिए प्रतिबद्धता उनके स्वभाव का हिस्सा हो तब तो। अनजाने ही संगठनों में लेखकों की 'मानसिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक ट्रेनिंग’ (सज़्ज़ाद ज़हीर) होती है।

अब जब हम स्वयं संगठनों की कमजोरियों को स्वीकार करते हैं और आत्मालोचन की ज़रूरत अनुभव करते हैं- तब यदि कोई कहता है कि संगठनों की प्रासंगिकता नहीं है, तो आपत्ति क्यों होती हैं? हाल में कुछ पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपे हैं। अखबारों में बहसें हुई हैं। कुछ ऐसी नियमित पत्रिकाएं हैं जो संगठनों के विघटन को हवा देती हैं। अराजक मनोविज्ञान के लेखकों को अपने साथ जोड़कर व्यक्तिगत हमले करवाती हैं। हमारे एक मित्र गोपेश्वर सिंह ने एक लेख के ज़रिए संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाकर सलाह दी है, 'किसी भी राजनीतिक सामाजिक घटना या राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सिर उठाने वाले संकट के समय लेखक के कर्तव्य और भूमिका को उसके विवेक पर छोडि़ए। वह समाज का सबसे संवेदनशील सदस्य है। वह मनुष्यता पर आए संकट को पहचानने की किसी भी राजनीतिज्ञ से अधिक क्षमता रखता है। इसके लिए लम्बे-चौड़े घोषणा पत्र के अनुशासन में बांधने का काम बन्द होना चाहिए।‘ गोपेश्वर सिंह की राय मानें तो संगठनों को तोड़ देना चाहिए।

मैं पिछले लगभग तीस-पैंतीस वर्षों से संगठन में कार्यकर्ता की तरह रहा हूँ। हरिशंकर परसाई के नेतृत्व में मध्यप्रदेश में काम करने का मौका मिला। एक समय था-जब इस प्रदेश के अधिकांश लेखक प्रलेस से जुड़े थे। जितनी पत्रिकाएं यहाँ से निकलीं: और प्रदेशों से नहीं। गजब की सक्रियता थी। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी संगठन से जुड़े थे इसलिए उनके सहयोग से युवा लेखकों के पन्द्रह-पन्द्रह दिन के रचना शिविर हुए। वैचारिक प्रशिक्षण हुआ। पचमढ़ी के शिविर में पन्द्रह दिन तक महाकवि शमशेर शामिल रहे। अंतिम दिन उन्होंने कहा कि यदि उनके ज़माने में ऐसे शिविर होते-तो उनका लेखन और बेहतर होता। मुझे याद है कि प्रतिवर्ष होने वाले शिविरों में मार्गदर्शन के लिए देश के बहुत से लेखक युवा लेखकों के साथ रहे। अद्भुत उत्साह था तब। उसका नतीजा हुआ कि वे युवा रचनाकार समृद्ध हुए और सामाजिक संघर्ष के लिए जुझारू और जागरुक भी बने। वे प्रलेस के साथ जुड़ते गए। उनसे कोई पूंछे तो आज भी वे संगठन के महत्व पर बोलते लिखते हैं। चालीस वर्षों की यात्रा में मैंने कर्तव्य समझा है कि संगठनों में शामिल वरिष्ठ लेखकों को युवा लेखकों के साथ कुछ समय रचनात्मक माहौल बनाकर बिताना चाहिए। यह ज़रूरी काम है। संगठनों का काम दफ्तर चलाना नहीं है। किसी के लेखन में कोई दबाव डालना नहीं। मौलिक प्रतिभा में हस्तक्षेप नहीं। मुझे नहीं लगता कि किसी लेखक संगठन में ऐसी स्थितियाँ हैं। लेखकीय आज़ादी में कहीं हस्तक्षेप है। जहाँ तक पार्टीबद्धता का प्रश्न उठाया जाता है तो जानिए कि प्रश्न उठाने वाले बाहरी लोग हैं। हमले के लिए बहाने के तौर पर इसे चुनते हैं। यह सही है कि इन्हें पार्टियों का सहयोग है। सहयोग के बिना संगठनों को खड़ा करना असंभव है? कम्युनिस्ट पार्टियाँ जब समाजवादी सामाजिक संरचना के लिए काम करती हैं और प्रलेस-जलेस-जसम से जुड़े लेखकों के सपनों में वही समाज है तो इस आपसी संगति से किसी को आपत्ति क्यों है? हाँ, उनके पास कोई नकारात्मक उदाहरण है तो बताएं। संगठनों में कितने पार्टी सदस्य हैं, वे यह देखें। पार्टी लाइन का भूत उन्हें सताता है तो कोई क्या करे? कम्युनिस्ट पार्टियों के काम से या लेखक-संगठनों के काम और कमजोरियों से शिकायत है तो यह अर्थ नहीं होता कि उन्हें तोड़ दिया जाए? शिकायत है तो बेहतरी के लिए हो। प्राय: दिखता है कि संगठन विरोधी लोग अपने व्यवहार में घनघोर वैचारिक अवसरवाद के शिकार होते हैं। अपनी आकांक्षाओं के लिए कहीं भी जाना-आना करना न करना के बीच आत्म नियंत्रण नहीं रखते। वे नहीं चाहते कि कोई उनके भीतर झाँके। उनके स्रोतों की खबर रखे। बेहतर तरीका होता है कि हमला करें और पहले से ही उन्हें सुरक्षात्मक बना दें। मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों की तारीफ करते हैं। पर भूल जाते हैं कि इसी कवि ने पूछा था- 'पार्टनर! तुम्हारी पालिटिक्स क्या है’, मुक्तिबोध ने स्वयं संगठन बनाने की पहल की थी। संगठन विरोधी क्या स्वयं से कभी पूंछते हैं कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है? मैंने संगठन में काम करते हुए कुछ कमजोरियों के बावजूद एक सकारात्मक अनुभव पाया है। वह यह कि सामान्य परिस्थितियों में संगठन या इसके सदस्य चाहे जितने ढीले नज़र आते हों- विपरीत परिस्थितियों में ये लड़ाकू हो जाते हैं। लोगों को याद होगा, जब-जब देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए, भोपाल में गैस त्रासदी हुई, गुजरात में भयंकर भूकम्प आया और इसी प्रदेश में सरकारी मशीनरी द्वारा गोधरा से लेकर पूरे गुजरात में अल्प संख्यकों का संहार हुआ। दक्षिणी प्रदेशों में सुनामी का कहर बरपा हुआ, मुंबई में आतंकी घटना हुई। लेखकों संस्कृतिकर्मियों ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की। लाखों रुपए लेखकों ने एकत्र किए और पीडि़तों तक भेजा। गैस त्रासदी में महीनों प्रभावितों की सेवा की। दंगों के समय लोगों ने सीधे जूझकर खतरे उठाए। जिन्हें पता न हो- वे पूंछें। उन्हें ब्यौरा दिया जाएगा।

देश में राजग सरकार के दौर की स्थितियाँ याद होंगी। लेखक संगठनों ने राष्ट्र व्यापी चुनाव घोषणा पत्र जारी किया था और साम्प्रदायिक शक्तियों को हराने के लिए जनता का आव्हान किया। अखबारों में लेख लिखे और जगह-जगह नुक्कड़ नाटक खेले गए। प्रेमचन्द को पाठ्यक्रम से हटाने का मामला हो या एम.एफ हुसैन के चित्रों को लेकर तोड़-फोड़, लेखक संगठनों ने व्यापक संघर्ष किया। पोस्टर युद्ध हुए। गुजरात की घटनाओं को उजागर करने के लिए लेखकों ने गुजरात का दौरा किया। पत्रिकाओं के विशेषांक निकले। मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार ने संस्कृति विभाग के दो लेखक अधिकारियों को निलम्बित किया तो लेखक संगठनों ने सांस्कृतिक मोर्चा बनाया। एकजुट होकर सरकारी गतिविधियों का बहिष्कार किया। स्थिति यह बनी कि उनकी सभाओं में महत्वपूर्ण लेखकों का आना बन्द हो गया। अनजाने कोई आता तो अपने किराए से लौट जाता। महीनों उनके सभागार सूने रहे। अन्तत: निलम्बित लेखकों को बहाल करना पड़ा। हबीब तनवीर के नाटक - 'पोंगा पंडित’ की प्रस्तुति पर हमला हुआ तो लेखक संगठनों ने मोर्चा सम्हाला। छत्तीसगढ़ सरकार ने कुछ दिन पहले चरणदास चोर नाटक के वाचन पर प्रतिबंध लगाया तो लेखक संगठनों ने आवाज उठायी। प्रतिबन्ध वापस हुआ। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं, जब लेखक संगठन अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए संघर्ष करते रहे हैं। संगठनों की पहल के बिना ऐसे मौकों पर कौन आवाज उठाता है, कोई बताए? बकौल गोपेश्वर जी लेखकों को अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए। तो इसमें हर्ज क्या है? जो संगठनों में नहीं हैं वे नहीं हैं। न रहें विवेक की सुनें। मुझे नहीं लगता कि इसके लिए संगठनों को कुछ करने की ज़रूरत है। संगठनों की सदस्यता लेखकों के विवेक पर ही तो निर्भर है। वे हमेशा आज़ाद होते हैं: इच्छा से आते-जाते हैं। देखने की बात यह है कि संगठनों के बिना तथाकथित कितने स्वतंत्र लेखक हैं जो परिस्थिति के अनुसार अपनी पहल पर सामाजिक संघर्ष का सक्रिय हिस्सा बनते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोकतंत्र में शक्ति संचय संगठन के बिना संभव है। व्यक्तिगत निष्क्रिय प्रतिरोध, निष्क्रिय आदर्श, आदर्शहीन अवसरवादी सक्रियता अथवा केवल लिखकर प्रकट होने वाला प्रतिरोध कुछ नहीं होता।

प्रगतिशील आन्दोलन से जुडऩे और परिणामत: गुणात्मक रूप से महत्वपूर्ण बने लेखकों की लम्बी सूची है। उर्दू में फै़ज, फिराक़, मख्दूम, जोश मलीहाबादी, मौलाना हसरत मोहानी, अली सरदार जाफ़री, कै़फी आजमी जैसे लेखकों ने उर्दू साहित्य की फिजां बदल दी। संगठन से जुड़ाव का ही कारण था कि फैज़ ने अपने समकालीनों से राह बदलने की अपील की-

'और भी ग़म हैं, ज़माने में मोहब्बत के सिवा,


राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा’

आगे जो उर्दू लेखक इससे अलग हुए और ज़दीदियत (आधुनिकवाद) की ओर मुड़े-उन दोनों धाराओं की तुलनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए। हिन्दी में नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर, केदार, शील जैसे कवियों का जो अवदान है-वह संगठन से जुड़े बगैर असंभव था। इसी तरह गद्य लेखकों की लम्बी चौड़ी सूची देखी जा सकती है। आज जब किसी को आलोचना या रचना के क्षेत्र में गुणवत्ता, व्यापक स्वीकृति, अकादमिक गुणवत्ता, नये सौन्दर्य शास्त्र की चिन्ता तथा वैचारिक संघर्ष की ज़रूरत नहीं अनुभव होती तब युवा लेखकों बरगलाने एवं मीडिया में फैलने के लिए बार-बार अपरीक्षित नकली स्वायतत्ता और अपरिक्षित ढंग से पार्टीबद्धता का ढिंढोरा पीटा जाता है। उन्हें किसी तरह लेखक संगठनों को तोडऩे की ज्यादा फिक्र हैं। ऐसे साथियों की अपनी समझ और आज़ादी है। उन्हें कौन रोक सकता है। जानना चाहिए कि लेखक संगठनों का काम दिनचर्या के कार्यालय चलाना नहीं है। शुरुआत से अभी तक इनका कोई भवन नहीं बना। स्थायी कोष नहीं है। वार्षिक सरकारी अनुदान नहीं मिलता। यहाँ सम्पति और पदों का झगड़ा नहीं है। इसीलिए ये संगठन अपनी सक्रियता के लिए हर दिन ज़मीन में भटकते हैं। लोगों को पता है कि बहुत दिनों तक इनका पंजीकरण नहीं था। इनकी प्रकृति आन्दोलन धर्मी थी। आज भी प्रकृति में परिवर्तन नहीं हुआ। आन्दोलन के मुद्दे और समय बार-बार निर्धारित होते हैं। घोषणा पत्र सामान्य नियम होते हैं जिनमें किंचित भी कठोरता नहीं रहती। वे सिद्ध करते हैं कि लेखक अवाम के साथ हैं। संगठन जानते हैं कि आज चुनौतियाँ ज्यादा हैं, क्षमताएं कम हैं। संगठनों की पत्रिकाएं हैं। नियमित-अनियमित निकलती हैं। प्राय: सभी भाषाओं में उनके लेखक-पाठक हैं। संगठनों की प्रेरणा या संगठन की ओर से निकलने वाली पत्रिकाएं केवल संगठनों के लेखकों की नहीं हैं। वे सांस्कृतिक धुव्रीकरण का काम करती हैं। सांस्कृतिक विकल्प की कोशिश में प्रलेस-जलेस-जसम से जुड़े नाट्य दल हैं। रंगकर्मी हैं। कहीं-कहीं चित्रकारों-कलाकारों के समूह भी इनसे जुड़े हैं। लोकतंत्र में जन संस्कृति का विकल्प क्या हो, इसकी समवेत चिन्ता संगठनों के बाहर समग्रता में और कहाँ होती है, इस बात पर निगाह रखी जाती है। ज़रूरत पर संयुक्त मोर्चे बनते हैं।

अंत में कहना यह है कि हमारे संगठन अपने आप में लक्ष्य नहीं हैं। उनका लक्ष्य लोकतंत्र के अनुकूल सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण करना है। जनसंस्कृति के लिए संघर्ष के बीज बोना है। जनविरोधी संस्कृति से लडऩे की प्रेरणा देना है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के संदेश से इसे जाना जा सकता है- 'याद रखो कि सृजनात्मक साहित्य बहुत जोखिम भरा काम है। सच्चाई और सौन्दर्य की तलाश करना है तो पहले अहं की केंचुली उतार दो। कली की तरह सख्त डंठल से बाहर निकलने की मंजिल तय करो। फिर देखो कि हवा कितनी साफ है, रौशनी कितनी सुहानी है और पानी कितना स्वच्छ।‘

- कमला प्रसाद


सोमवार, 30 नवंबर 2009

वसुधा-82 का प्रकाशकीय



ईद के मौके पर हमने वसुधा के अंक 82 में प्रकाशित पाकिस्तानी कविताएं प्रस्तुत की थीं। इस अंक के अवरण के बारे में भी पहले लिखा था। आज वह आवरण और उसके साथ कवि राजेंद्र शर्मा का प्रकाशकीय प्रस्तुत है। - प्रेमचंद गांधी


इस अंक के आवरण पर जो चित्र आप देख रहे हैं उसे प्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद ने बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन के पोस्टर के लिए बनाया था। जाने किन वजहों से बिमल दा ने इसका कोई इस्तेमाल नहीं किया। पाठक गण फिल्म के क्लाइमेक्स को जरा भी याद करेंगे तो इस चित्र में रिक्शा दौड़ाते बलराज साहनी को पहचान लेंगे। चित्तप्रसाद (जन्म 1915) शांति निकेतन स्कूल के ऐसे छात्र थे जिन्होंने 1942-45 में सजावटी कला के स्थान पर बंगाल के महा दुर्भिक्ष में जीने के लिए एक एक मुट्ठी भात का संघर्ष करते लोगों को अपने चित्रों का विषय बनाया। चित्तप्रसाद वही कलाकार हैं जिन्होंने भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का लोगो डिजाइन किया है- नगाड़ा पीटता हुआ कलाकार। चित्तो बाबू, पी.सी. जोशी के आग्रह पर 1946 में मुम्बई चले आये और स्वाधीनता, जनयुद्ध, पीपुल्स वार जैसे समाचार पत्रों के लिए नाविक विद्रोह तथा महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों के चित्र बनाते रहे। 1978 में उनका निधन हुआ।

इस अंक के आवरण पर प्रकाशित हो रहा यह चित्र, दरअसल हिन्दी सिनेमा पर केन्द्रित हमारे पिछले अंक के आवरण पर होना था। चित्रकार कथाकार साथी अशोक भौमिक की श्रमसाध्य खोज के बाद यह हमें किंचित विलम्ब से अब प्राप्त हुआ। सो इसे हम अब प्रकाशित कर रहे हैं। बिमल दा, बलराज साहनी के साथ उनकी समूची सृजनात्मक टीम और चित्तो बाबू और साथी अशोक भौमिक के श्रम के प्रति भी आदरांजलि के रूप में।

हिन्दी सिनेमा पर केन्द्रित प्रगतिशील वसुधा का पिछला अंक आशातीत रूप से पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। एक माह के भीतर ही इसकी सभी दो हजार प्रतियां समाप्त हो गईं। हमारे सीमित संसाधनों के चलते सिने प्रेमियों की इस अंक के पुनर्मुद्रण की मांग को पूरा करना हमारे लिए संभव नहीं है। ऐसे समय में हमारे अभिन्न सहयोगी श्री सतीश अग्रवाल ने मदद का हाथ बढ़ाया है। उन्होंने इसे अविकल रूप से पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है और पेपर बैक संस्करण का दाम मात्र तीन सौ रुपया रखा है। कहने की जरूरत नहीं कि यह लागत मूल्य ही है। अब जो मित्र इसे अपने लिए चाहते हों वे सीधे उनसे सम्पर्क कर सकते हैं। उनके संस्थान का पता है- साहित्य भंडार, 50 चाहचंद (ज़ीरो रोड) इलाहाबाद-211003-मोबाइल नंबर-09335155792 तथा 09415028044

प्रगतिशील वसुधा के विशेषांकों का सिलसिला पिछले दिनों कुछ इस तरह चला कि सामान्य अंकों के प्रकाशन में अप्रत्याशित विलम्ब होता चला गया। भविष्य में हमारे पूर्वघोषित विशेषांक भी यथासमय ही प्रकाशित होंगे पर अब सामान्य अंकों का सिलसिला अबाध चलेगा। प्रकाशन हेतु सभी स्वीकृत रचनाएं क्रमबद्ध रूप से प्रकाशित होती रहेंगी, कुछ नयी और विशिष्ट सामग्री के साथ, हर बार।

पिछले माह ही वरिष्ठ कवि कुंवरनारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस अवसर पर हम विशेष रूप से उनकी कविताएं और उनके कविता संसार पर ओम निश्चल तथा अवधेश प्रधान के आत्मीय लेख प्रकाशित कर रहे हैं। ओम निश्चल ने कुंवरनारायण से जो लम्बी बातचीत की है, समकालीन कविता विमर्श पर उसके दूरगामी परिणाम होंगे। इस अवसर पर सम्मानित कवि से यह बातचीत हिन्दी में पहली बार प्रकाशित हो रही है।

सत्येन्द्र पांडे ने कवि आलोचक अग्रज साथी खगेन्द्र ठाकुर से बातचीत के दरमियान एक एक्टिविस्ट रचनाकार की सृजनधर्मिता की पड़ताल की है। कवि चंद्रकांत देवताले के रचना संसार की आत्मीय पड़ताल हमारे लिए प्रभात त्रिपाठी ने की है। कृष्णमोहन ने पंकज राग की कविता के बहाने 1857 के महासंग्राम के मूल्यों पर छिड़ी बहस को एक नया मोड़ दिया है। श्रीपाद अमृत डांगे का एक दुर्लभ दस्तावेजी व्याख्यान भी इसी अंक में प्रकाशित है। मूल रूप से अंग्रेजी में दिये गये इस व्याख्यान का हिन्दी अनुवाद यश: शेष कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने किया था। इन सबके अलावा भी कविताओं-कहानियों के साथ ढेर सारी अन्य प्रासंगिक सामग्री जो इस अंक में संयोजित है- यह सब कुछ आपको कैसा लगा, यह जानने की उत्सुकता हमें रहेगी।

इधर दीप जोशी को मैगसासे अवार्ड, पंकज मित्र को मीरा स्मृति सम्मान महेश कटारे को कथाक्रम पुरस्कार, पुरुषोत्तम अग्रवाल को हजारी प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार तथा विष्णु खरे को भवभूति अलंकरण से सम्मानित किया गया है। भोपाल की स्पंदन साहित्य संस्था ने वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग, प्रियदर्शन, कवि पंकज राग, आलोचक शंभु गुप्त को सम्मानित करने का निर्णय लिया है। हरिशंकर परसाई तथा विनय दुबे के जन्मग्राम जमानी (होशंगाबाद) के ग्रामीणजनों ने युवा कवि नीलोत्पल तथा वरिष्ठ इतिहासकार शंभुदयाल गुरु को सम्मानित किया। प्रगतिशील वसुधा परिवार की ओर से सभी को हार्दिक बधाई।

इसी बीच मीनाक्षी मुखर्जी, रामचंद्र तिवारी, महमूद हाशमी, हरीश भादानी और रमेश कौशिक का दुखद निधन हुआ। हमारी शोकांजलि।


- राजेन्द्र शर्मा


शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

ईद के मुबारक मौके पर पाकिस्‍तान से कुछ कविताएं


वसुधा के ताज़ा अंक में उर्दू के मशहूर शायर शहरयार द्वारा चुनी गईं कुछ पाकिस्‍तानी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। आज ईद के मुबारक मौके पर सब दोस्‍तों को ईद मुबारक कहते हुए प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं, जिनमें ग़ज़लें और नज्‍़में दोनों हैं।



हुमैरा रहमान की दो ग़ज़लें

एक
आड़े-तिरछे पत्थर काटने पड़ते हैं
हिज्र में रात समन्दर काटने पड़ते हैं

जीस्त की छोटी सी पायल सरकाने को
कितने सारे दफ्तर काटने पड़ते हैं

थक जाते हैं जुगनू अच्छे ख्वाबों के
आँखों के सौ चक्कर काटने पड़ते हैं

दिल के पास अंधेरा सा इक कमरा है
सदमे उसके अन्दर काटने पड़ते हैं

जब लोगों को मिलकर रहना आए नहीं
बीच से आँगन और घर काटने पड़ते हैं

एक चेहरा तस्वीर से बाहर लाने को
अच्छे खासे मंज़र काटने पड़ते हैं

मौत किसी मामूली चीज़ का नाम नहीं
इसके साथ कई डर काटने पड़ते हैं

पेड़ हुमैरा शहरों की मजबूरी हैं
बढ़ जायें तो अक्सर काटने पड़ते हैं

दो
कयाम करते रहे हैं कई सदाओं के साथ
हमारी जात है वाबस्ता इन्तेहाओं के साथ

ये फस्ल सूख गई है हमारे हिस्से की
मगर लगान तो देना पड़ेगा गाँव के साथ

ये किसने खौफ उंडेला है कोने-कोने में
ये कौन फैल गया शहर में बलाओं के साथ

तवील जंग नए फैसले सुनाती रही
कि उसको बैर था माँओं की इल्तिजाओं के साथ

चला है मुझमें जहाँ तक तुझे ज़रूरत थी
 कदम उठाता हुआ शख्स मेरे पाँव के साथ

हुमैरा भीड़ में ऐसे परिन्द खोये नहीं
उड़ान जिनकी बंधी थी खुली फजाओं के साथ

काशिफ़ हुसैन ग़ायर की दो ग़ज़लें
एक

वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका
आया नहीं जो दिन वो गुज़ारा भी जा चुका

इस पार हम खड़े हैं अभी तक और उस तरफ़
लहरों के साथ-साथ किनारा भी जा चुका

दुख है मलाल है वही पहला सा हाल है
जाने को उस गली में दुबारा भी जा चुका

क्या जाते किस ख्याल में उम्रे खाँ गई
हाथों से जिंदगी का खि़सारा भी जा चुका

काशिफ हुसैन छोडिय़े अब जिन्दगी का खेल
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका

दो

हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूँ कोई साया न करे

मैं भी आखिर हूँ इसी दश्त का रहने वाला
कैसे मजनूं से कहूं खाक उड़ाया न करे

आईना मेरे शबो रोज़ से वाकिफ़ ही नहीं
कौन हूँ, क्या हूँ? मुझे याद दिलाया न करे

ऐन मुमकिन है चली जाय समाअत मेरी
दिल से कहिये कि बहुत शोर मचाया न करे

मुझ से रस्तों का बिछडऩा नहीं देखा जाता
मुझसे मिलने वो किसी मोड़ पे आया न करे

कमर रज़ा शहज़ाद की दो ग़ज़लें

एक

कब चलन जंग का बदलता हूँ
मैं फ़कत मोरचा बदलता हूँ

तू बदलता है अपने खद्दों-खाल
और मैं आईना बदलता हूँ

वो मुझे रास्ते में मारेगा
मैं अगर रास्ता बदलता हूँ

उसने भी अपना अहद तोड़ दिया
मैं भी अपना कहा बदलता हूँ

जाने मैं किस बला से हूँ खायफ़
रोज़ अपना पता बदलता हूँ

दो

आदमी था खुदा बना दिया है
इश्क ने क्या से क्या बना दिया है

कोई सच पर चले-चले न चले
हमने तो रास्ता बना दिया है

हमने देखा था इक नज़र उसको
शहर ने वाक़या बना दिया है

इश्क जैसा बहुत पुराना लिबास
जिसने पहना नया बना दिया है

दफ़न हो जाइए कि अब उसने
शहर को मक़बरा बना दिया है

शाहिदा हसन की एक ग़ज़ल
मेरे खुदा तू मेरा इस्तेराब जानता है
गुज़र रहे हैं जो जाँ पर अज़ाब जानता है

मेरे लहू में निहाँ रौशनी से वाकि़फ है
मेरे ख्याल की सब आब-ओ-ताब जानता है

तमाम उम्र जो सोचा तुझे खबर उसकी
तमाम उम्र जो देखे वो ख्वाब जानता है

सिसक रही है यहाँ क्यूँ हरी-भरी हर शाख
बिलख रहे हैं यहाँ क्यूँ गुलाब जानता है

फ़लक का रंग हवा का मिज़ाज क्यूँ बदला
हमारी फ़स्ल हुई क्यूँ खराब जानता है

मैं तेरे नाम पे दिल में दिया जलाये हूँ
और इस चिराग़ को तू आफ़ताब जानता है

साबिर जफ़र की दो ग़ज़लें
एक

तस्वीर में फूल खिल रहा है
वरना हर ऋतु  खि़जां ज़दा है

मैं आज भी मुन्तजिर हूँ उसका
जो ख्वाब में खाक हो चुका है

था उसका वुजूद कोरी गागर
मैंने जिसे इश्क से भरा है

छूने से गुरेज़ कर रहा हूँ
तू है कि तेरा मुजास्सिमां है

खुलती नहीं जिंदगी ज़फ़र की
देखो इस डस्टबिन में क्या है

दो

वो याद का एक दायरा था
मैं जिसका तवाफ कर रहा था

चलते हुए रास्ते बहुत थे
मैं अपने ख्याल में रुका था

बंजर थे विसाल के वसीले
हालांकि बदन हरा भरा था

हर बात अधूरी रह गई थी
अलफ़ाज़ का रूठना भी क्या था

दिल बन्द ज़फर किया था जिसने
जाने मुझे क्यूँ पुकारता था

जिया उल हसन की एक ग़ज़ल

क्या रहेगा यहाँ और क्या नहीं रहने वाला
तुमने कुछ भी यहाँ देखा नहीं रहने वाला

लोग आते हैं यहाँ और चले जाते हैं
तू भी मुझको यहाँ लगता नहीं रहने वाला

कौन इस दश्त में आयेगा ठहरने वाला
कोई इस धूप में बैठा नहीं रहने वाला

बात कोई भी यहाँ पर नहीं बनने वाली
नक्श कोई भी यहाँ का नहीं रहने वाला

बुझती जाती हैं इसी ग़म में हमारी आँखें
तेरे चेहरे का उजाला नहीं रहने वाला

एक-एक करके जि़या रौनकें सब ख़त्म हुईं
अब तो ये शहर ही लगता नहीं रहने वाला

पाकिस्तान के वकीलों के नाम ज़ेहरा निग़ाह का एक शेर

हम ये समझे थे क़फ़स में कै़द हो बे बाल-ओ-पर
तुम तो सर टकरा के दीवार क़फ़स को तोड़ आए

अहमद आज़ाद की एक नज्‍़म

मुरझायी हुई आँखों में

मुरझायी हुई आँखों में
शाम का तारा
खिल उठा
ज़ख्म दिल में

दिल ने याद करना चाहा
वो फूल
जो किसी ने सड़क पर
फेंक दिया था

वो नज़्म
जो आँसुओं में
भीगी हुई थी

और वो ख्वाब
जो किसी आँख से गिरकर
चूर-चूर हो गया था

दिल और याद के दरमियाँ
शाम ले आई रात को
रात ने फैलती तन्हाई को
मज़ीद फैला दिया

फूल नज़्म में खिल उठा
नज़्म ख्वाब में
और ख्वाब
मेरी आँखों में

सैयद काशिफ़ रज़ा की एक नज्‍़म

एक मामूली नाम वाला आदमी

कुछ लोगों के नाम
याद रखने के लिए रखे जाते हैं
और बाकी के पुकारने के लिए
मोहम्मद अकरम के बाप ने
उसका नाम सिर्फ पुकारने के लिए रखा था

कुछ लोगों के नाम
वक्त के साथ बड़े होने लगते हैं
बाकी के और छोटे
एक दिन अकरम को भी इक्कू बना दिया गया

उसकी माँ खुश होती तो
उसे मोहम्मद अकरम कहकर पुकारती
फिर वो लोग मादूम हो गए
जिन्हें उसका असली नाम याद था

उसका नाम किसी कतबे पर
दर्ज नहीं किया जायेगा
इक्कू ने एक दिन सोचा
उसकी कब्र पुख्ता नहीं की जायेगी

आज वो जि़न्दा होता तो
उसे खुशी से मर जाना चाहिये था
अस्पताल के बाहर लगी हुई
फेहरिस्त में अपना नाम
मोहम्मद अकरम वल्द अल्लाह दत्ता देखकर





गुरुवार, 26 नवंबर 2009

प्रगतिशील वसुधा का नया अंक 82 जारी



प्रगतिशील वसुधा का नया अंक 82 जारी हो गया है। इस अंक के आवरण पर प्रसिद्ध चित्रकार चित्तो प्रसाद का बनाया गया वो पोस्टर है, जो बिमल राय की महान फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के लिए बनाया गया था। यह पोस्‍टर फिल्‍म के प्रचार के लिए इस्‍तेमाल नहीं हुआ।  पाठकों को याद होगा कि वसुधा का पिछला अंक फिल्‍म विशेषांक था, जिसकी अब तक मांग हो रही है। इस अंक से हम वसुधा की चुनिंदा सामग्री क्रमश: ब्लाग पर उपलब्ध कराने की कोशिश करेंगे। जिस पोस्‍टर की हमने चर्चा की है, वह प्रकाशकीय और संपादकीय के साथ कल प्रकाशित करेंगे। सबसे पहले प्रस्तुत है, इस अंक में दी गई सामग्री का विवरण।


प्रकाशकीय : राजेंद्र शर्मा - 5

सम्पादकीय : और भी ग़म हैं ज़माने में: कमला प्रसाद - 7

श्रद्धांजलि स्मरण

सुदीप के न रहने पर: चंद्रकान्त देवताले- 14

प्यारे मामा: जावेद मलिक - 17

लिख बैठा मैं जन के पथ वाम: प्रकाश कान्त - 23

मेरा सलाम: इक़बाल मजीद - 29

मजदूरों के संगठित संघर्षों के अपराजित प्रतीक: विनीत तिवारी - 32

कुछ यादें: राजकुमार सैनी - 39

वे हमारे लिए एक सांस्कृतिक प्रतिरोध थे: विजय बहादुर सिंह - 44

एक औघड़ चिंतक और रचनाकार: हेतु भारद्वाज - 48

एक शब्द साधक का अवसान: कामिनी- 53

विशिष्ट कवि : कुंवरनारायण

सुगठित और अकाट्य जीवन विवेक: ओम निश्चल - 58

कुंवरनारायण की कविताएं - 61

वाजश्रवा के बहाने- एक सम्यक् जीवन- बोध की खोज: अवधेश प्रधान - 66

मेरी कविता कुछ कुछ मेरे स्वभाव की तरह है:

कवि कुंवरनारायण से ओम निश्चल की बातचीत - 73

दस्तावेजी व्याख्यान

जन-जीवन और साहित्य: श्रीपाद अमृत डाँगे - 96

लम्बी कविता : कबूलनामा- निशांत - 121

कहानियाँ

गुमने की जगह: कुमार अम्बुज - 136

गुल्लक: अरुण कुमार असफल – 144

बारिश, ठंड और वह: गजेन्द्र रावत - 171

गुम होते लोग: डॉ. नीरज वर्मा - 178

कविताएं

रमेश कुंतल मेघ - 155 मलय - 158 ज्ञानेन्द्रपति - 162 लाल्टू - 164

गोविंद माथुर - 166 मनोहर बाथम – 169 आलोक भट्टाचार्य - 204

उमाशंकर चौधरी - 205 संदीप पांडेय- 206

आलोक श्रीवास्तव - 208 कृष्ण शंकर -211 कुलदीप शर्मा - 212

साहित्यिकी

हिन्दी नवजागरण और उत्तरशती के विमर्श: चौथीराम यादव - 192

परसाई का पुनर्पाठ

शहर में अगर कहीं वफ़ा है...: वेद प्रकाश- 213

गज़़ल

डॉ. कुमार विनोद -223 राजेश रेड्डी- 224 जहीर कुरेशी - 225

बातचीत

'मार्क्सवाद का निषेध करने वाले-विज्ञान और यथार्थ का ही निषेध करते हैं’

वरिष्ठ कवि-आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर से सत्येन्द्र पाण्डेय की बातचीत - 226

पड़ोस

पाकिस्तान से कुछ कविताएं- चयन: शहरयार - 238

चीन को देखकर, सुनकर और गुनकर: डॉ. ब्रजकुमार पाण्डेय- 242

सामयिकी

नवउदारवाद का चुनाव: ईश्वर दोस्त- 248

आकलन

अशेष ऊर्जा की कविता: प्रभात त्रिपाठी - 253

किताब चर्चा

परिंदों की लड़ाई बंद हो गई दरिंदों की लड़ाई जारी है: कृष्ण मोहन - 265

यह निरा आँसू नहीं कोई कठिन निष्कर्ष है: डॉ. वन्दना मिश्रा -278

कविता का विस्मय: विस्मय की कविता: परमानंद श्रीवास्तव - 283

कहन और भाषा का एक अनूठापन और एक कवि: लीलाधर मंडलोई - 287

दर्द का हद से गुज़रना: रमाकांत श्रीवास्तव - 289

हद से गुज़र जाना: राजकुमार - 292

चक्की में पिसता दलित समुदाय : क्रीमी लेयर से ऊपर और नीचे : कमल जैन - 299

होने का होना: संजय अलंग - 304

साम्राज्यवाद के सहारे नहीं होगी लड़ाई: अरुण कुमार - 306

वर्गीज कूरियन-अमूल: रास्ता है! : प्रेमपाल शर्मा – 311