सोमवार, 30 नवंबर 2009

वसुधा-82 का प्रकाशकीय



ईद के मौके पर हमने वसुधा के अंक 82 में प्रकाशित पाकिस्तानी कविताएं प्रस्तुत की थीं। इस अंक के अवरण के बारे में भी पहले लिखा था। आज वह आवरण और उसके साथ कवि राजेंद्र शर्मा का प्रकाशकीय प्रस्तुत है। - प्रेमचंद गांधी


इस अंक के आवरण पर जो चित्र आप देख रहे हैं उसे प्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद ने बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन के पोस्टर के लिए बनाया था। जाने किन वजहों से बिमल दा ने इसका कोई इस्तेमाल नहीं किया। पाठक गण फिल्म के क्लाइमेक्स को जरा भी याद करेंगे तो इस चित्र में रिक्शा दौड़ाते बलराज साहनी को पहचान लेंगे। चित्तप्रसाद (जन्म 1915) शांति निकेतन स्कूल के ऐसे छात्र थे जिन्होंने 1942-45 में सजावटी कला के स्थान पर बंगाल के महा दुर्भिक्ष में जीने के लिए एक एक मुट्ठी भात का संघर्ष करते लोगों को अपने चित्रों का विषय बनाया। चित्तप्रसाद वही कलाकार हैं जिन्होंने भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का लोगो डिजाइन किया है- नगाड़ा पीटता हुआ कलाकार। चित्तो बाबू, पी.सी. जोशी के आग्रह पर 1946 में मुम्बई चले आये और स्वाधीनता, जनयुद्ध, पीपुल्स वार जैसे समाचार पत्रों के लिए नाविक विद्रोह तथा महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों के चित्र बनाते रहे। 1978 में उनका निधन हुआ।

इस अंक के आवरण पर प्रकाशित हो रहा यह चित्र, दरअसल हिन्दी सिनेमा पर केन्द्रित हमारे पिछले अंक के आवरण पर होना था। चित्रकार कथाकार साथी अशोक भौमिक की श्रमसाध्य खोज के बाद यह हमें किंचित विलम्ब से अब प्राप्त हुआ। सो इसे हम अब प्रकाशित कर रहे हैं। बिमल दा, बलराज साहनी के साथ उनकी समूची सृजनात्मक टीम और चित्तो बाबू और साथी अशोक भौमिक के श्रम के प्रति भी आदरांजलि के रूप में।

हिन्दी सिनेमा पर केन्द्रित प्रगतिशील वसुधा का पिछला अंक आशातीत रूप से पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। एक माह के भीतर ही इसकी सभी दो हजार प्रतियां समाप्त हो गईं। हमारे सीमित संसाधनों के चलते सिने प्रेमियों की इस अंक के पुनर्मुद्रण की मांग को पूरा करना हमारे लिए संभव नहीं है। ऐसे समय में हमारे अभिन्न सहयोगी श्री सतीश अग्रवाल ने मदद का हाथ बढ़ाया है। उन्होंने इसे अविकल रूप से पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है और पेपर बैक संस्करण का दाम मात्र तीन सौ रुपया रखा है। कहने की जरूरत नहीं कि यह लागत मूल्य ही है। अब जो मित्र इसे अपने लिए चाहते हों वे सीधे उनसे सम्पर्क कर सकते हैं। उनके संस्थान का पता है- साहित्य भंडार, 50 चाहचंद (ज़ीरो रोड) इलाहाबाद-211003-मोबाइल नंबर-09335155792 तथा 09415028044

प्रगतिशील वसुधा के विशेषांकों का सिलसिला पिछले दिनों कुछ इस तरह चला कि सामान्य अंकों के प्रकाशन में अप्रत्याशित विलम्ब होता चला गया। भविष्य में हमारे पूर्वघोषित विशेषांक भी यथासमय ही प्रकाशित होंगे पर अब सामान्य अंकों का सिलसिला अबाध चलेगा। प्रकाशन हेतु सभी स्वीकृत रचनाएं क्रमबद्ध रूप से प्रकाशित होती रहेंगी, कुछ नयी और विशिष्ट सामग्री के साथ, हर बार।

पिछले माह ही वरिष्ठ कवि कुंवरनारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस अवसर पर हम विशेष रूप से उनकी कविताएं और उनके कविता संसार पर ओम निश्चल तथा अवधेश प्रधान के आत्मीय लेख प्रकाशित कर रहे हैं। ओम निश्चल ने कुंवरनारायण से जो लम्बी बातचीत की है, समकालीन कविता विमर्श पर उसके दूरगामी परिणाम होंगे। इस अवसर पर सम्मानित कवि से यह बातचीत हिन्दी में पहली बार प्रकाशित हो रही है।

सत्येन्द्र पांडे ने कवि आलोचक अग्रज साथी खगेन्द्र ठाकुर से बातचीत के दरमियान एक एक्टिविस्ट रचनाकार की सृजनधर्मिता की पड़ताल की है। कवि चंद्रकांत देवताले के रचना संसार की आत्मीय पड़ताल हमारे लिए प्रभात त्रिपाठी ने की है। कृष्णमोहन ने पंकज राग की कविता के बहाने 1857 के महासंग्राम के मूल्यों पर छिड़ी बहस को एक नया मोड़ दिया है। श्रीपाद अमृत डांगे का एक दुर्लभ दस्तावेजी व्याख्यान भी इसी अंक में प्रकाशित है। मूल रूप से अंग्रेजी में दिये गये इस व्याख्यान का हिन्दी अनुवाद यश: शेष कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने किया था। इन सबके अलावा भी कविताओं-कहानियों के साथ ढेर सारी अन्य प्रासंगिक सामग्री जो इस अंक में संयोजित है- यह सब कुछ आपको कैसा लगा, यह जानने की उत्सुकता हमें रहेगी।

इधर दीप जोशी को मैगसासे अवार्ड, पंकज मित्र को मीरा स्मृति सम्मान महेश कटारे को कथाक्रम पुरस्कार, पुरुषोत्तम अग्रवाल को हजारी प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार तथा विष्णु खरे को भवभूति अलंकरण से सम्मानित किया गया है। भोपाल की स्पंदन साहित्य संस्था ने वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग, प्रियदर्शन, कवि पंकज राग, आलोचक शंभु गुप्त को सम्मानित करने का निर्णय लिया है। हरिशंकर परसाई तथा विनय दुबे के जन्मग्राम जमानी (होशंगाबाद) के ग्रामीणजनों ने युवा कवि नीलोत्पल तथा वरिष्ठ इतिहासकार शंभुदयाल गुरु को सम्मानित किया। प्रगतिशील वसुधा परिवार की ओर से सभी को हार्दिक बधाई।

इसी बीच मीनाक्षी मुखर्जी, रामचंद्र तिवारी, महमूद हाशमी, हरीश भादानी और रमेश कौशिक का दुखद निधन हुआ। हमारी शोकांजलि।


- राजेन्द्र शर्मा


शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

ईद के मुबारक मौके पर पाकिस्‍तान से कुछ कविताएं


वसुधा के ताज़ा अंक में उर्दू के मशहूर शायर शहरयार द्वारा चुनी गईं कुछ पाकिस्‍तानी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। आज ईद के मुबारक मौके पर सब दोस्‍तों को ईद मुबारक कहते हुए प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं, जिनमें ग़ज़लें और नज्‍़में दोनों हैं।



हुमैरा रहमान की दो ग़ज़लें

एक
आड़े-तिरछे पत्थर काटने पड़ते हैं
हिज्र में रात समन्दर काटने पड़ते हैं

जीस्त की छोटी सी पायल सरकाने को
कितने सारे दफ्तर काटने पड़ते हैं

थक जाते हैं जुगनू अच्छे ख्वाबों के
आँखों के सौ चक्कर काटने पड़ते हैं

दिल के पास अंधेरा सा इक कमरा है
सदमे उसके अन्दर काटने पड़ते हैं

जब लोगों को मिलकर रहना आए नहीं
बीच से आँगन और घर काटने पड़ते हैं

एक चेहरा तस्वीर से बाहर लाने को
अच्छे खासे मंज़र काटने पड़ते हैं

मौत किसी मामूली चीज़ का नाम नहीं
इसके साथ कई डर काटने पड़ते हैं

पेड़ हुमैरा शहरों की मजबूरी हैं
बढ़ जायें तो अक्सर काटने पड़ते हैं

दो
कयाम करते रहे हैं कई सदाओं के साथ
हमारी जात है वाबस्ता इन्तेहाओं के साथ

ये फस्ल सूख गई है हमारे हिस्से की
मगर लगान तो देना पड़ेगा गाँव के साथ

ये किसने खौफ उंडेला है कोने-कोने में
ये कौन फैल गया शहर में बलाओं के साथ

तवील जंग नए फैसले सुनाती रही
कि उसको बैर था माँओं की इल्तिजाओं के साथ

चला है मुझमें जहाँ तक तुझे ज़रूरत थी
 कदम उठाता हुआ शख्स मेरे पाँव के साथ

हुमैरा भीड़ में ऐसे परिन्द खोये नहीं
उड़ान जिनकी बंधी थी खुली फजाओं के साथ

काशिफ़ हुसैन ग़ायर की दो ग़ज़लें
एक

वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका
आया नहीं जो दिन वो गुज़ारा भी जा चुका

इस पार हम खड़े हैं अभी तक और उस तरफ़
लहरों के साथ-साथ किनारा भी जा चुका

दुख है मलाल है वही पहला सा हाल है
जाने को उस गली में दुबारा भी जा चुका

क्या जाते किस ख्याल में उम्रे खाँ गई
हाथों से जिंदगी का खि़सारा भी जा चुका

काशिफ हुसैन छोडिय़े अब जिन्दगी का खेल
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका

दो

हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूँ कोई साया न करे

मैं भी आखिर हूँ इसी दश्त का रहने वाला
कैसे मजनूं से कहूं खाक उड़ाया न करे

आईना मेरे शबो रोज़ से वाकिफ़ ही नहीं
कौन हूँ, क्या हूँ? मुझे याद दिलाया न करे

ऐन मुमकिन है चली जाय समाअत मेरी
दिल से कहिये कि बहुत शोर मचाया न करे

मुझ से रस्तों का बिछडऩा नहीं देखा जाता
मुझसे मिलने वो किसी मोड़ पे आया न करे

कमर रज़ा शहज़ाद की दो ग़ज़लें

एक

कब चलन जंग का बदलता हूँ
मैं फ़कत मोरचा बदलता हूँ

तू बदलता है अपने खद्दों-खाल
और मैं आईना बदलता हूँ

वो मुझे रास्ते में मारेगा
मैं अगर रास्ता बदलता हूँ

उसने भी अपना अहद तोड़ दिया
मैं भी अपना कहा बदलता हूँ

जाने मैं किस बला से हूँ खायफ़
रोज़ अपना पता बदलता हूँ

दो

आदमी था खुदा बना दिया है
इश्क ने क्या से क्या बना दिया है

कोई सच पर चले-चले न चले
हमने तो रास्ता बना दिया है

हमने देखा था इक नज़र उसको
शहर ने वाक़या बना दिया है

इश्क जैसा बहुत पुराना लिबास
जिसने पहना नया बना दिया है

दफ़न हो जाइए कि अब उसने
शहर को मक़बरा बना दिया है

शाहिदा हसन की एक ग़ज़ल
मेरे खुदा तू मेरा इस्तेराब जानता है
गुज़र रहे हैं जो जाँ पर अज़ाब जानता है

मेरे लहू में निहाँ रौशनी से वाकि़फ है
मेरे ख्याल की सब आब-ओ-ताब जानता है

तमाम उम्र जो सोचा तुझे खबर उसकी
तमाम उम्र जो देखे वो ख्वाब जानता है

सिसक रही है यहाँ क्यूँ हरी-भरी हर शाख
बिलख रहे हैं यहाँ क्यूँ गुलाब जानता है

फ़लक का रंग हवा का मिज़ाज क्यूँ बदला
हमारी फ़स्ल हुई क्यूँ खराब जानता है

मैं तेरे नाम पे दिल में दिया जलाये हूँ
और इस चिराग़ को तू आफ़ताब जानता है

साबिर जफ़र की दो ग़ज़लें
एक

तस्वीर में फूल खिल रहा है
वरना हर ऋतु  खि़जां ज़दा है

मैं आज भी मुन्तजिर हूँ उसका
जो ख्वाब में खाक हो चुका है

था उसका वुजूद कोरी गागर
मैंने जिसे इश्क से भरा है

छूने से गुरेज़ कर रहा हूँ
तू है कि तेरा मुजास्सिमां है

खुलती नहीं जिंदगी ज़फ़र की
देखो इस डस्टबिन में क्या है

दो

वो याद का एक दायरा था
मैं जिसका तवाफ कर रहा था

चलते हुए रास्ते बहुत थे
मैं अपने ख्याल में रुका था

बंजर थे विसाल के वसीले
हालांकि बदन हरा भरा था

हर बात अधूरी रह गई थी
अलफ़ाज़ का रूठना भी क्या था

दिल बन्द ज़फर किया था जिसने
जाने मुझे क्यूँ पुकारता था

जिया उल हसन की एक ग़ज़ल

क्या रहेगा यहाँ और क्या नहीं रहने वाला
तुमने कुछ भी यहाँ देखा नहीं रहने वाला

लोग आते हैं यहाँ और चले जाते हैं
तू भी मुझको यहाँ लगता नहीं रहने वाला

कौन इस दश्त में आयेगा ठहरने वाला
कोई इस धूप में बैठा नहीं रहने वाला

बात कोई भी यहाँ पर नहीं बनने वाली
नक्श कोई भी यहाँ का नहीं रहने वाला

बुझती जाती हैं इसी ग़म में हमारी आँखें
तेरे चेहरे का उजाला नहीं रहने वाला

एक-एक करके जि़या रौनकें सब ख़त्म हुईं
अब तो ये शहर ही लगता नहीं रहने वाला

पाकिस्तान के वकीलों के नाम ज़ेहरा निग़ाह का एक शेर

हम ये समझे थे क़फ़स में कै़द हो बे बाल-ओ-पर
तुम तो सर टकरा के दीवार क़फ़स को तोड़ आए

अहमद आज़ाद की एक नज्‍़म

मुरझायी हुई आँखों में

मुरझायी हुई आँखों में
शाम का तारा
खिल उठा
ज़ख्म दिल में

दिल ने याद करना चाहा
वो फूल
जो किसी ने सड़क पर
फेंक दिया था

वो नज़्म
जो आँसुओं में
भीगी हुई थी

और वो ख्वाब
जो किसी आँख से गिरकर
चूर-चूर हो गया था

दिल और याद के दरमियाँ
शाम ले आई रात को
रात ने फैलती तन्हाई को
मज़ीद फैला दिया

फूल नज़्म में खिल उठा
नज़्म ख्वाब में
और ख्वाब
मेरी आँखों में

सैयद काशिफ़ रज़ा की एक नज्‍़म

एक मामूली नाम वाला आदमी

कुछ लोगों के नाम
याद रखने के लिए रखे जाते हैं
और बाकी के पुकारने के लिए
मोहम्मद अकरम के बाप ने
उसका नाम सिर्फ पुकारने के लिए रखा था

कुछ लोगों के नाम
वक्त के साथ बड़े होने लगते हैं
बाकी के और छोटे
एक दिन अकरम को भी इक्कू बना दिया गया

उसकी माँ खुश होती तो
उसे मोहम्मद अकरम कहकर पुकारती
फिर वो लोग मादूम हो गए
जिन्हें उसका असली नाम याद था

उसका नाम किसी कतबे पर
दर्ज नहीं किया जायेगा
इक्कू ने एक दिन सोचा
उसकी कब्र पुख्ता नहीं की जायेगी

आज वो जि़न्दा होता तो
उसे खुशी से मर जाना चाहिये था
अस्पताल के बाहर लगी हुई
फेहरिस्त में अपना नाम
मोहम्मद अकरम वल्द अल्लाह दत्ता देखकर





गुरुवार, 26 नवंबर 2009

प्रगतिशील वसुधा का नया अंक 82 जारी



प्रगतिशील वसुधा का नया अंक 82 जारी हो गया है। इस अंक के आवरण पर प्रसिद्ध चित्रकार चित्तो प्रसाद का बनाया गया वो पोस्टर है, जो बिमल राय की महान फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के लिए बनाया गया था। यह पोस्‍टर फिल्‍म के प्रचार के लिए इस्‍तेमाल नहीं हुआ।  पाठकों को याद होगा कि वसुधा का पिछला अंक फिल्‍म विशेषांक था, जिसकी अब तक मांग हो रही है। इस अंक से हम वसुधा की चुनिंदा सामग्री क्रमश: ब्लाग पर उपलब्ध कराने की कोशिश करेंगे। जिस पोस्‍टर की हमने चर्चा की है, वह प्रकाशकीय और संपादकीय के साथ कल प्रकाशित करेंगे। सबसे पहले प्रस्तुत है, इस अंक में दी गई सामग्री का विवरण।


प्रकाशकीय : राजेंद्र शर्मा - 5

सम्पादकीय : और भी ग़म हैं ज़माने में: कमला प्रसाद - 7

श्रद्धांजलि स्मरण

सुदीप के न रहने पर: चंद्रकान्त देवताले- 14

प्यारे मामा: जावेद मलिक - 17

लिख बैठा मैं जन के पथ वाम: प्रकाश कान्त - 23

मेरा सलाम: इक़बाल मजीद - 29

मजदूरों के संगठित संघर्षों के अपराजित प्रतीक: विनीत तिवारी - 32

कुछ यादें: राजकुमार सैनी - 39

वे हमारे लिए एक सांस्कृतिक प्रतिरोध थे: विजय बहादुर सिंह - 44

एक औघड़ चिंतक और रचनाकार: हेतु भारद्वाज - 48

एक शब्द साधक का अवसान: कामिनी- 53

विशिष्ट कवि : कुंवरनारायण

सुगठित और अकाट्य जीवन विवेक: ओम निश्चल - 58

कुंवरनारायण की कविताएं - 61

वाजश्रवा के बहाने- एक सम्यक् जीवन- बोध की खोज: अवधेश प्रधान - 66

मेरी कविता कुछ कुछ मेरे स्वभाव की तरह है:

कवि कुंवरनारायण से ओम निश्चल की बातचीत - 73

दस्तावेजी व्याख्यान

जन-जीवन और साहित्य: श्रीपाद अमृत डाँगे - 96

लम्बी कविता : कबूलनामा- निशांत - 121

कहानियाँ

गुमने की जगह: कुमार अम्बुज - 136

गुल्लक: अरुण कुमार असफल – 144

बारिश, ठंड और वह: गजेन्द्र रावत - 171

गुम होते लोग: डॉ. नीरज वर्मा - 178

कविताएं

रमेश कुंतल मेघ - 155 मलय - 158 ज्ञानेन्द्रपति - 162 लाल्टू - 164

गोविंद माथुर - 166 मनोहर बाथम – 169 आलोक भट्टाचार्य - 204

उमाशंकर चौधरी - 205 संदीप पांडेय- 206

आलोक श्रीवास्तव - 208 कृष्ण शंकर -211 कुलदीप शर्मा - 212

साहित्यिकी

हिन्दी नवजागरण और उत्तरशती के विमर्श: चौथीराम यादव - 192

परसाई का पुनर्पाठ

शहर में अगर कहीं वफ़ा है...: वेद प्रकाश- 213

गज़़ल

डॉ. कुमार विनोद -223 राजेश रेड्डी- 224 जहीर कुरेशी - 225

बातचीत

'मार्क्सवाद का निषेध करने वाले-विज्ञान और यथार्थ का ही निषेध करते हैं’

वरिष्ठ कवि-आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर से सत्येन्द्र पाण्डेय की बातचीत - 226

पड़ोस

पाकिस्तान से कुछ कविताएं- चयन: शहरयार - 238

चीन को देखकर, सुनकर और गुनकर: डॉ. ब्रजकुमार पाण्डेय- 242

सामयिकी

नवउदारवाद का चुनाव: ईश्वर दोस्त- 248

आकलन

अशेष ऊर्जा की कविता: प्रभात त्रिपाठी - 253

किताब चर्चा

परिंदों की लड़ाई बंद हो गई दरिंदों की लड़ाई जारी है: कृष्ण मोहन - 265

यह निरा आँसू नहीं कोई कठिन निष्कर्ष है: डॉ. वन्दना मिश्रा -278

कविता का विस्मय: विस्मय की कविता: परमानंद श्रीवास्तव - 283

कहन और भाषा का एक अनूठापन और एक कवि: लीलाधर मंडलोई - 287

दर्द का हद से गुज़रना: रमाकांत श्रीवास्तव - 289

हद से गुज़र जाना: राजकुमार - 292

चक्की में पिसता दलित समुदाय : क्रीमी लेयर से ऊपर और नीचे : कमल जैन - 299

होने का होना: संजय अलंग - 304

साम्राज्यवाद के सहारे नहीं होगी लड़ाई: अरुण कुमार - 306

वर्गीज कूरियन-अमूल: रास्ता है! : प्रेमपाल शर्मा – 311