हुमैरा रहमान की दो ग़ज़लें
एक
आड़े-तिरछे पत्थर काटने पड़ते हैं
हिज्र में रात समन्दर काटने पड़ते हैं
जीस्त की छोटी सी पायल सरकाने को
कितने सारे दफ्तर काटने पड़ते हैं
थक जाते हैं जुगनू अच्छे ख्वाबों के
आँखों के सौ चक्कर काटने पड़ते हैं
दिल के पास अंधेरा सा इक कमरा है
सदमे उसके अन्दर काटने पड़ते हैं
जब लोगों को मिलकर रहना आए नहीं
बीच से आँगन और घर काटने पड़ते हैं
एक चेहरा तस्वीर से बाहर लाने को
अच्छे खासे मंज़र काटने पड़ते हैं
मौत किसी मामूली चीज़ का नाम नहीं
इसके साथ कई डर काटने पड़ते हैं
पेड़ हुमैरा शहरों की मजबूरी हैं
बढ़ जायें तो अक्सर काटने पड़ते हैं
दो
कयाम करते रहे हैं कई सदाओं के साथ
हमारी जात है वाबस्ता इन्तेहाओं के साथ
ये फस्ल सूख गई है हमारे हिस्से की
मगर लगान तो देना पड़ेगा गाँव के साथ
ये किसने खौफ उंडेला है कोने-कोने में
ये कौन फैल गया शहर में बलाओं के साथ
तवील जंग नए फैसले सुनाती रही
कि उसको बैर था माँओं की इल्तिजाओं के साथ
चला है मुझमें जहाँ तक तुझे ज़रूरत थी
कदम उठाता हुआ शख्स मेरे पाँव के साथ
हुमैरा भीड़ में ऐसे परिन्द खोये नहीं
उड़ान जिनकी बंधी थी खुली फजाओं के साथ
काशिफ़ हुसैन ग़ायर की दो ग़ज़लें
एक
वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका
आया नहीं जो दिन वो गुज़ारा भी जा चुका
इस पार हम खड़े हैं अभी तक और उस तरफ़
लहरों के साथ-साथ किनारा भी जा चुका
दुख है मलाल है वही पहला सा हाल है
जाने को उस गली में दुबारा भी जा चुका
क्या जाते किस ख्याल में उम्रे खाँ गई
हाथों से जिंदगी का खि़सारा भी जा चुका
काशिफ हुसैन छोडिय़े अब जिन्दगी का खेल
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका
दो
हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूँ कोई साया न करे
मैं भी आखिर हूँ इसी दश्त का रहने वाला
कैसे मजनूं से कहूं खाक उड़ाया न करे
आईना मेरे शबो रोज़ से वाकिफ़ ही नहीं
कौन हूँ, क्या हूँ? मुझे याद दिलाया न करे
ऐन मुमकिन है चली जाय समाअत मेरी
दिल से कहिये कि बहुत शोर मचाया न करे
मुझ से रस्तों का बिछडऩा नहीं देखा जाता
मुझसे मिलने वो किसी मोड़ पे आया न करे
कमर रज़ा शहज़ाद की दो ग़ज़लें
एक
कब चलन जंग का बदलता हूँ
मैं फ़कत मोरचा बदलता हूँ
तू बदलता है अपने खद्दों-खाल
और मैं आईना बदलता हूँ
वो मुझे रास्ते में मारेगा
मैं अगर रास्ता बदलता हूँ
उसने भी अपना अहद तोड़ दिया
मैं भी अपना कहा बदलता हूँ
जाने मैं किस बला से हूँ खायफ़
रोज़ अपना पता बदलता हूँ
दो
आदमी था खुदा बना दिया है
इश्क ने क्या से क्या बना दिया है
कोई सच पर चले-चले न चले
हमने तो रास्ता बना दिया है
हमने देखा था इक नज़र उसको
शहर ने वाक़या बना दिया है
इश्क जैसा बहुत पुराना लिबास
जिसने पहना नया बना दिया है
दफ़न हो जाइए कि अब उसने
शहर को मक़बरा बना दिया है
शाहिदा हसन की एक ग़ज़ल
मेरे खुदा तू मेरा इस्तेराब जानता है
गुज़र रहे हैं जो जाँ पर अज़ाब जानता है
मेरे लहू में निहाँ रौशनी से वाकि़फ है
मेरे ख्याल की सब आब-ओ-ताब जानता है
तमाम उम्र जो सोचा तुझे खबर उसकी
तमाम उम्र जो देखे वो ख्वाब जानता है
सिसक रही है यहाँ क्यूँ हरी-भरी हर शाख
बिलख रहे हैं यहाँ क्यूँ गुलाब जानता है
फ़लक का रंग हवा का मिज़ाज क्यूँ बदला
हमारी फ़स्ल हुई क्यूँ खराब जानता है
मैं तेरे नाम पे दिल में दिया जलाये हूँ
और इस चिराग़ को तू आफ़ताब जानता है
साबिर जफ़र की दो ग़ज़लें
एक
तस्वीर में फूल खिल रहा है
वरना हर ऋतु खि़जां ज़दा है
मैं आज भी मुन्तजिर हूँ उसका
जो ख्वाब में खाक हो चुका है
था उसका वुजूद कोरी गागर
मैंने जिसे इश्क से भरा है
छूने से गुरेज़ कर रहा हूँ
तू है कि तेरा मुजास्सिमां है
खुलती नहीं जिंदगी ज़फ़र की
देखो इस डस्टबिन में क्या है
दो
वो याद का एक दायरा था
मैं जिसका तवाफ कर रहा था
चलते हुए रास्ते बहुत थे
मैं अपने ख्याल में रुका था
बंजर थे विसाल के वसीले
हालांकि बदन हरा भरा था
हर बात अधूरी रह गई थी
अलफ़ाज़ का रूठना भी क्या था
दिल बन्द ज़फर किया था जिसने
जाने मुझे क्यूँ पुकारता था
जिया उल हसन की एक ग़ज़ल
क्या रहेगा यहाँ और क्या नहीं रहने वाला
तुमने कुछ भी यहाँ देखा नहीं रहने वाला
लोग आते हैं यहाँ और चले जाते हैं
तू भी मुझको यहाँ लगता नहीं रहने वाला
कौन इस दश्त में आयेगा ठहरने वाला
कोई इस धूप में बैठा नहीं रहने वाला
बात कोई भी यहाँ पर नहीं बनने वाली
नक्श कोई भी यहाँ का नहीं रहने वाला
बुझती जाती हैं इसी ग़म में हमारी आँखें
तेरे चेहरे का उजाला नहीं रहने वाला
एक-एक करके जि़या रौनकें सब ख़त्म हुईं
अब तो ये शहर ही लगता नहीं रहने वाला
पाकिस्तान के वकीलों के नाम ज़ेहरा निग़ाह का एक शेर
हम ये समझे थे क़फ़स में कै़द हो बे बाल-ओ-पर
तुम तो सर टकरा के दीवार क़फ़स को तोड़ आए
अहमद आज़ाद की एक नज़्म
मुरझायी हुई आँखों में
मुरझायी हुई आँखों में
शाम का तारा
खिल उठा
ज़ख्म दिल में
दिल ने याद करना चाहा
वो फूल
जो किसी ने सड़क पर
फेंक दिया था
वो नज़्म
जो आँसुओं में
भीगी हुई थी
और वो ख्वाब
जो किसी आँख से गिरकर
चूर-चूर हो गया था
दिल और याद के दरमियाँ
शाम ले आई रात को
रात ने फैलती तन्हाई को
मज़ीद फैला दिया
फूल नज़्म में खिल उठा
नज़्म ख्वाब में
और ख्वाब
मेरी आँखों में
सैयद काशिफ़ रज़ा की एक नज़्म
एक मामूली नाम वाला आदमी
कुछ लोगों के नाम
याद रखने के लिए रखे जाते हैं
और बाकी के पुकारने के लिए
मोहम्मद अकरम के बाप ने
उसका नाम सिर्फ पुकारने के लिए रखा था
कुछ लोगों के नाम
वक्त के साथ बड़े होने लगते हैं
बाकी के और छोटे
एक दिन अकरम को भी इक्कू बना दिया गया
उसकी माँ खुश होती तो
उसे मोहम्मद अकरम कहकर पुकारती
फिर वो लोग मादूम हो गए
जिन्हें उसका असली नाम याद था
उसका नाम किसी कतबे पर
दर्ज नहीं किया जायेगा
इक्कू ने एक दिन सोचा
उसकी कब्र पुख्ता नहीं की जायेगी
आज वो जि़न्दा होता तो
उसे खुशी से मर जाना चाहिये था
अस्पताल के बाहर लगी हुई
फेहरिस्त में अपना नाम
मोहम्मद अकरम वल्द अल्लाह दत्ता देखकर
बहुत उम्दा गज़ले हैं यह । प्रस्तुति के लिये धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएं